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________________ प्रवचनसार गाथा १४९ विगत गाथाओं में समय और प्रदेश के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है और अब इस गाथा में तिर्यक्प्रचय और ऊर्ध्वप्रचय को समझाते हैं। ध्यान रहे तिर्यक्प्रचय में प्रदेशों की अपेक्षा है और ऊर्ध्वप्रचय में समयों की अपेक्षा है। गाथा मूलतः इसप्रकार है - एक्को व दुगे बहुगा संखातीदा तदो अणंता य । दव्वाणं च पदेसा संति हि समय त्ति कालस्स ।। १४१ ।। ( हरिगीत ) एक दो या बहुत से परदेश असंख्य अनंत हैं । काल के हैं समय अर अवशेष के परदेश हैं । । १४१ ।। द्रव्यों के एक, दो, बहुत, असंख्य अथवा अनन्त प्रदेश हैं और कालद्रव्य के समय हैं। उक्त गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं " प्रदेशों का समूह तिर्यक्प्रचय है और समय विशिष्ट पर्यायों का समूह ऊर्ध्वप्रचय है। आकाश द्रव्य अवस्थित (स्थिर) अनंत प्रदेशी होने से, धर्म व अधर्म द्रव्य अवस्थित असंख्यप्रदेशी होने से और जीव अनवस्थित (अस्थिर) असंख्य प्रदेशी होने से तिर्यक्प्रचय वाले द्रव्य हैं। यद्यपि द्रव्यदृष्टि से पुद्गलद्रव्य अनेक प्रदेशी होनेरूप शक्ति से संपन्न एक प्रदेश वाला है; तथापि पर्यायदृष्टि से अनेक (संख्यात, असंख्यात और अनंत) प्रदेशवाला है; इसलिए उसके भी तिर्यक्प्रचय है । परन्तु कालद्रव्य के तिर्यक्प्रचय नहीं है; क्योंकि वह शक्ति और व्यक्ति (प्रगटता) दोनों से ही एक प्रदेशवाला ही है। गाथा - १४१ २२१ ऊर्ध्वप्रच तो सभी द्रव्यों के अनिवार्यरूप से होता ही है; क्योंकि द्रव्य की वृत्ति (पर्यायें) तीन (भूत, भविष्य और वर्तमान) कोटियों को स्पर्श करती है; इसलिए अंशों से युक्त है। इतना विशेष है कि समयों का प्रचय (समूह) कालद्रव्य का ऊर्ध्वप्रचय है और समयविशिष्ट वृत्तियों का प्रचय शेष द्रव्यों का ऊर्ध्वप्रचय है; क्योंकि कालद्रव्य की वृत्ति स्वतः समयभूत है और अन्य द्रव्यों की वृत्ति समय से अर्थान्तरभूत (अन्य) होने से समयविशिष्ट है।' यद्यपि आचार्य जयसेन इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते समय आचार्य अमृतचन्द्र का ही अनुकरण करते हैं; तथापि वे अपनी बात को सिद्ध भगवान का उदाहरण देकर स्पष्ट करते हैं। यह भी बताते हैं कि तिर्यक्प्रचय को तिर्यक्सामान्य, विस्तारसामान्य और अक्रमानेकान्त भी कहते हैं। इसीप्रकार ऊर्ध्वप्रचय को ऊर्ध्वसामान्य, आयतसामान्य और क्रमानेकान्त भी कहते हैं। कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा के भाव को २ मनहरण और ६ दोहे - इसप्रकार कुल ८ छन्दों में समझाते हैं; जिसमें उन्होंने गाथा और टीकाओं की समस्त विषयवस्तु को समाहित कर लिया है। नमूने के तौर पर प्रस्तुत दोहे इसप्रकार हैं (दोहा) जिनके बहुत प्रदेश हैं, तिर्यकप्रचई सोय सो पाँचों ही दरब में, व्यापत हैं भ्रम खोय ।। ९० ।। कालानू में मिलन की, शकति नाहिं तिस हेत । तिर्यकपरचै के विषै, गनती नाहिं करेत ।। ९१ ॥ समयनि के समुदाय को, ऊरधपरचै नाम । सो यह सब दरवनिविषै, व्यापत है अभिराम ।। ९२ ।। काल दरव के निमित्त तैं, ऊरधपरचे होत । ताही तैं सब दरव को, परनत होत उदोत । । ९३ ।। पंचनि के ऊरधप्रचय, काल दरव तैं जानु । कालमाहिं ऊरधप्रचय, निजाधार परमानु ।। ९४ । ।
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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