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________________ २०२ गाथा-१३५ २०३ प्रवचनसार अनुशीलन सकल लोकव्यापी असंख्यप्रदेशों के विस्ताररूप होने से धर्मद्रव्य प्रदेशवान (सप्रदेशी) है। इसीप्रकार सकल लोकव्यापी असंख्यप्रदेशों से विस्ताररूप होने से अधर्मद्रव्य भी प्रदेशवान (सप्रदेशी) है और सर्वव्यापी अनन्त प्रदेशों के विस्ताररूप होने से आकाश प्रदेशवान है। कालाणुद्रव्य तो प्रदेशमात्र होने से और पर्यायों का परस्पर संपर्क न होने से अप्रदेशी ही है। इसप्रकार कालद्रव्य अप्रदेशी और शेष द्रव्य सप्रदेशी हैं।" आचार्य जयसेन भी इस गाथा के भाव को प्रस्तुत करने में आचार्य अमृतचन्द्र की तत्त्वप्रदीपिका टीका का अनुकरण करते हैं। कविवर वृन्दावनदासजी १ दोहा और १ मनहरण कवित्त - इसप्रकार २ छन्दों में टीकाओं में समागत वस्तुको प्रस्तुत कर देते हैं; जो इसप्रकार है (दोहा) जीवरु पुद्गल काय नभ धरम अधरम तथेस। हैं असंख परदेशजुत काल रहित परदेश ।।५१।। जीव, पुद्गल, आकाश, धर्म और अधर्म द्रव्यों के अनेक प्रदेश हैं; इसलिए वे अस्तिकाय हैं; किन्तु कालद्रव्य प्रदेशों से रहित है; इसलिए वह नास्तिकाय है। (मनहरण) एक जीव दर्व के असंख परदेश कहे, संकोच विथार जथा दीपक पै ढपना। पुग्गल प्रमान एक अप्रदेशी है तथापि, मिलन शकति सों बढ़ावै वंश अपना ।। धर्माधर्म अखंड असंख परदेशी नभ, सर्वगत अनंत प्रदेशी वृन्द जपना । कालानूमेंमिलनशकतिकोअभावतात, अप्रदेशी ऐसे जानें मिटे ताप तपना ।।५२।। एक जीवद्रव्य के असंख्यप्रदेश कहे हैं। जिसप्रकार दीपक का प्रकाश अपने संकोचविस्तार स्वभाव के कारण यथालब्ध स्थान में रह जाता है; उसीप्रकार जीव भी अपने संकोचविस्तार स्वभाव के कारण प्राप्त शरीर में रह जाता है। यद्यपि पुद्गल अप्रदेशी है; तथापि मिलन शक्ति के कारण वह अपना वंश बढ़ा लेता है, स्कंधरूप में बदल जाता है। धर्म और अधर्मद्रव्य असंख्यप्रदेशी अखण्ड हैं और आकाश सर्वगत अनंतप्रदेशी हैं। कालाणु में मिलने की शक्ति नहीं है; इसलिए अप्रदेशी ही है - ऐसा जानने से संसारताप में तपना मिट जाता है। पण्डित देवीदासजी ने भी इस गाथा के भाव को १ कवित्त और १ दोहे में बड़ी सरलता से प्रस्तुत कर दिया है। इसप्रकार हम देखते हैं कि इस गाथा में कोई विशेष बात नहीं है, मात्र इतना ही कहा गया है कि एक जीव के लोकाकाशप्रमाण असंख्यप्रदेश हैं, धर्म और अधर्मद्रव्यों के भी असंख्य प्रदेश ही हैं; पर आकाश के अनन्त प्रदेश हैं - इसप्रकार ये चार द्रव्य तो सप्रदेशी अर्थात् अस्तिकाय ही हैं। यद्यपि पुद्गल परमाणुद्रव्य एकप्रदेशी ही है, तथापि स्कंध की अपेक्षा उपचार से वह संख्यात, असंख्यात और अनंत प्रदेशी भी कहा गया है; इसकारण सप्रदेशी है; परन्तु कालाणुद्रव्य एकप्रदेशी होने से अप्रदेशी ही है। इसप्रकार जीवादि पाँच द्रव्य अस्तिकाय और कालाणु नास्तिकायहै। इस गाथा के उपरान्त आचार्य जयसेनकृत तात्पर्यवृत्ति टीका में एक गाथा प्राप्त होती है; जो आचार्य अमृतचन्द्रकृत तत्त्वप्रदीपिका टीका में नहीं है। गाथा मूलत: इसप्रकार है - एदाणि पंचदव्वाणि उज्झियकालंतु अत्थिकाय त्ति । भण्णंते काया पुण बहुप्पदेसाण पचयत्तं ।।११।। (हरिगीत) रे कालद्रव को छोड़कर अवशेष अस्तिकाय हैं। अर बहुप्रदेशीपना ही है काय जिनवर ने कहा ।।११।।
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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