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________________ १९९ १९८ प्रवचनसार अनुशीलन उत्तर - जिसप्रकार उपराष्ट्रपति राष्ट्रपति नहीं है; उसीप्रकार उपकारक भी कारक नहीं है। प्रश्न - संसार में तो कारक से भी महान उपकारक को माना जाता है? उत्तर - यदि कोई राष्ट्रपति से भी महान उपराष्ट्रपति को मानना चाहे तो हम क्या कर सकते हैं ? इसीप्रकार यदि कोई स्वद्रव्यरूप उपादानकारण से भी महान परद्रव्यरूप निमित्तकारण को मानना चाहे तो हम क्या कर सकते हैं ? पर, हम यह क्यों भूल जाते हैं कि आचार्य जयसेन तो इसी गाथा की टीका में उपकारक को दुखकारक ही बता रहे हैं। उनका उक्त कथन इसप्रकार है - “यहाँ अर्थ यह है कि यद्यपि पाँच द्रव्य जीव का उपकार करते हैं; तथापि वे दुख के ही कारण हैं - ऐसा जानकर अक्षय-अनंत सुखादि के कारणभूत विशुद्ध ज्ञान-दर्शन उपयोगस्वभावी परमात्मद्रव्य का ही मन द्वारा ध्यान करना चाहिए, उसे ही वचनों से बोलना चाहिए और शरीर से उसके ही साधक अनुष्ठान करना चाहिए।" पुद्गल के जीव के प्रति उपकारों में जिस सुख की चर्चा है, वह सुख इन्द्रियसुख होने से दुख ही है। जैसा कि इसी ग्रन्थ की ७६वीं गाथा में भी कहा है कि - सपरं बाधासहिदं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं । जं इंदिएहिं लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा ।।७६।। (हरिगीत) इन्द्रियसुख सुख नहीं दुख है विषम बाधा सहित है। है बंध का कारण दुखद परतंत्र है विच्छिन्न है।।७६।। जोसुख इन्द्रियों से प्राप्त होता है; वह सुख परसंबंधयुक्त है, बाधासहित है, विच्छिन्न है, बंध का कारण है और विषम है; इसप्रकार वह इन्द्रियसुख दुख ही है। इस पर भी यदि कोई दुख के कारण को ही सुख का कारण मानकर उसे महान मानना चाहता है तो हम क्या करें? गाथा-१३३-३४ ___ अतीन्द्रियसुख की प्राप्ति में तो किसी परद्रव्य का कोई उपकार है ही नहीं; उसकी प्राप्ति तो स्वद्रव्य द्वारा स्वद्रव्य के आश्रय से ही होती है; समस्त परद्रव्यों पर से उपयोग को हटाकर स्वद्रव्य में लाने से ही होती है; आत्मज्ञान, आत्मश्रद्धान और आत्मध्यान से ही होती है। वस्तुत: बात यह है कि जैनदर्शन अकर्तावादी दर्शन है। अकर्तावाद का अर्थ मात्र इतना ही नहीं होता है कि कोई तथाकथित ईश्वर जगत का कर्ता-धर्ता नहीं है; अपितु यह भी होता है कि निश्चय से एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता-धर्ता नहीं है। अपने सुख-दुख का जिम्मेदार यह आत्मा स्वयं ही है। उक्त महान सिद्धान्त के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यहाँ जो उपकारों की चर्चा है; वह मात्र निमित्त के ज्ञान कराने के लिये है; एक द्रव्य को दूसरे द्रव्यों का कर्ता-हर्ता बताने के लिए नहीं। अधिक क्या कहें, समझदारों को तो इतना ही पर्याप्त है। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन गाथाओं का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "ज्ञान का स्वभाव सामान्य और विशेष सब जानना । इतने अधिक विशेषों को जानने से राग उत्पन्न होगा - ऐसा मानकर अज्ञानी जीव अपने ज्ञानस्वभाव को अस्वीकार करता है। वस्तुतः ज्ञान स्व-परप्रकाशक है। जीव में एकसाथ सबको जानने की ताकत है। विशेष का ज्ञान राग का कारण नहीं; परन्तु अपनी राग की योग्यता ही राग का कारण है। कोई प्रश्न करे कि ज्ञेयों के इतने अधिक भेद क्यों ? इतना अधिक जानने से ज्ञान उद्धत हो जाए तो, इतनी अधिक आफत क्यों ? अकेले आत्मा को जानकर बैठे रहें तो क्या बाधा है ? उससे कहते हैं कि अनंत प्रकार के ज्ञेयों को जानने का तेरा स्वभाव है। यदि तू यह कहे कि मुझे भेद को नहीं जानना है; तो तू अपने ज्ञानस्वभाव को ही अस्वीकार करता है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-३४
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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