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________________ प्रवचनसार गाथा - ३४ विगत गाथाओं में विस्तार से यह बताया गया है कि आत्मा को जाननेवाला ही केवली है और श्रुतकेवली है; इसलिए केवली और श्रुतकेवली में कोई अन्तर नहीं है। अब इस ३४ वीं गाथा में कहते हैं कि यदि श्रुत की उपाधि की उपेक्षा करें तो श्रुतज्ञान भी तो ज्ञान ही है। गाथा मूलतः इसप्रकार है - सुतं जिणोवदिट्ठ पोग्गलदव्वप्पगेहिं वयणेहिं । तं जाणणा हि णाणं सुत्तस्स य जाणणा भणिया ।। ३४ ।। ( हरिगीत ) जिनवर कथित पुद्गल वचन ही सूत्र उसकी ज्ञप्ति ही । है ज्ञान उसको केवली जिनसूत्र की ज्ञप्ति कहें ।। ३४ । । पुद्गलद्रव्यात्मक वचनों के रूप में जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहे गये वस्तुस्वरूप के ज्ञान को सूत्र की ज्ञप्ति अर्थात् श्रुतज्ञान कहा गया है। उक्त गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “प्रथम तो श्रुत ही सूत्र है और वह सूत्र भगवान अरहंत सर्वज्ञ द्वारा स्वयं जानकर उपदिष्ट, स्यात्कार चिह्नयुक्त, पौद्गलिक शब्दब्रह्म है। उस शब्दब्रह्म की ज्ञप्ति (जानना) ज्ञान है। उस ज्ञान का कारण होने से उक्त सूत्ररूप श्रुतको उपचार से ज्ञान कहा जाता है। इसप्रकार यह फलित हुआ कि सूत्र की ज्ञप्ति ही श्रुतज्ञान है। अब यदि उपाधि होने से सूत्र का आदर न किया जाय तो सूत्रज्ञप्ति में से ज्ञप्ति ही शेष रह जाती है और वह ज्ञप्ति केवली और श्रुतकेवली के आत्मानुभवन में समान ही है। इसलिए ज्ञान में श्रुतोपाधिकृत भेद नहीं है।" गाथा - ३४ १७३ आचार्य जयसेन भी इस गाथा का अर्थ तात्पर्यवृत्ति में इसीप्रकार करते हुए कहते हैं कि द्रव्यश्रुत व्यवहार से श्रुतज्ञान है और भावश्रुत निश्चय से श्रुतज्ञान है। केवली भगवान की दिव्यध्वनि सुनकर या उनकी दिव्यध्वनि के अनुसार लिखे गये शास्त्रों को पढ़कर जो ज्ञान होता है; उसे श्रुतज्ञान कहते हैं । यहाँ विचार का बिन्दु यह है कि केवली की दिव्यध्वनि तो भाषावर्गणारूप पुद्गलों की रचना है। पुद्गलमय होने से वह स्वयं तो कुछ जानती नहीं है; जानने-देखने का कार्य तो आत्मा में ही होता है, आत्मा ही करता है; पुद्गलमयी दिव्यध्वनि तो मात्र निमित्त है। श्रुतज्ञान में से यदि द्रव्यश्रुत को गौण कर दें तो भावश्रुत तो ज्ञान ही है, ज्ञान की ही पर्याय है; आत्मानुभव भी भावश्रुतज्ञानरूप ही है। केवली भगवान अपने आत्मा को ज्ञानपर्याय से ही जानते हैं और श्रुतज्ञानी भी अपने आत्मा का अनुभव भावश्रुतज्ञानरूप ज्ञानपर्याय से ही करते हैं। इसप्रकार आत्मा को जानने में केवली और श्रुतकेवली अर्थात् केवलज्ञानी और श्रुतज्ञानी में समानता ही है। उक्त गाथा का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “प्रथम सूत्र को कारण कहा, पश्चात् उसे उपाधि कहा; इस उपाधि का लक्ष्य छोड़े तो जानने की क्रिया ही शेष रहती है। १. त्रिलोकी नाथ तीर्थंकर की वाणी के सिवाय अन्य कोई दूसरा निमित्त नहीं होता । अन्यमत की ही नहीं अपितु जैन के नाम से जो कल्पित शास्त्र की रचना हुई है, वह भी (आत्मज्ञान में) निमित्त नहीं होता । २. अब, उस निमित्त को उपाधि कहा है, क्योंकि उसका लक्ष्य छोड़ने से ही श्रुतज्ञान होता है।
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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