SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा-३३ १७१ १७० प्रवचनसार अनुशीलन केवली पंचमकाल में हुए हैं, जिनकी चर्चा जिनागम में है ।अत: 'अभी श्रुत-केवली नहीं होते' - आचार्य जयसेन के इस वाक्य में समागत 'अभी' शब्द का अर्थ अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के बाद का काल ही लेना चाहिए। 'अभी श्रुतकेवली नहीं होते' - इस कथन से यह अर्थ निकालना कि अभी स्वसंवेदन के बल से आत्मानुभव भी नहीं होता - यह भी ठीक नहीं है और आत्मानुभव होता है, इसलिए अभी निश्चयश्रुतकेवली भी होते हैं - यह भी ठीक नहीं है। जब भद्रबाहु श्रुतकेवली के बाद कोई श्रुतकेवली हुआ ही नहीं तो फिर अभी भी भावश्रुतकेवली होने की बात कहाँ टिकती है? इसीप्रकार जब पंचमकाल के अन्त तक भावलिंगी मुनिराज आर्यिकाएँ एवं सम्यग्दृष्टि-अणुव्रती श्रावक-श्राविकायें होना सुनिश्चित है तो फिर अभी स्वसंवेदनरूप आत्मज्ञान का अभाव कैसे हो सकता है ?' निष्कर्ष के रूप में हम यह कह सकते हैं कि श्रुतज्ञान का अधिकतम विकास द्वादशांग का पाठी होना ही है; इसकारण ही उसे यहाँ सर्वश्रुत कहा है। 'जो आत्मा सर्वश्रुत को जानता है, वह श्रुतकेवली हैं'- का अर्थ यह हुआ कि जिस आत्मा का श्रुतज्ञान पूर्णतः विकसित हो गया है, वह श्रुतकेवली है। __ पूर्ण विकसित श्रुतज्ञान में स्व-पर सभी द्रव्य श्रुतज्ञान के विषय बनते हैं। अत: यह सुनिश्चित हुआ कि सर्वश्रुत को जाननेवाले श्रुतकेवली ने सभी को जाना है। उसके इस सर्वज्ञान में स्व को जानने के कारण वह निश्चयश्रुतकेवली कहा जाता है और द्वादशांगरूप पर को जानने के कारण वह व्यवहारश्रुतकेवली कहलाता है। ऐसी ही अपेक्षा केवली पर भी घटित होती है। स्व-पर सभी को जाननेवाले केवली भगवान स्व को जानने के कारण निश्चयकेवली और लोकालोक को जानने के कारण व्यवहारकेवली कहे जाते हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि केवली भगवान निश्चय से आत्मज्ञ हैं और व्यवहार से सर्वज्ञ ।" उक्त सम्पूर्ण विश्लेषण का तात्पर्य यही है कि अपने आत्मा को अनुभवपूर्वक जाननेवाला आत्मा, आत्मा में ही अपनापन स्थापित करनेवाला आत्मा और आत्मा में ही जमजानेवाला, रमजानेवाला आत्मा ही श्रुतकेवली बनता है और केवली भी वही बनता है। ___तात्पर्य यह है कि पढ़-पढ़कर या सुन-सुनकर आजतक न कोई केवली बना है और न श्रुतकेवली । केवली और श्रुतकेवली बनने के लिए आत्मज्ञान और आत्मध्यान ही कार्यकारी हैं। अत: आत्मार्थी भाइयों को परज्ञेयों की जाननेकीआकांक्षा से. अधिक ज्ञेयों को जानने की आकांक्षा से परलक्षी १.समयसार अनुशीलन भाग १ (द्वितीय संस्करण), पृष्ठ-१०३ होना योग्य नहीं है। __ धर्म के आरम्भ करने की विधि ही यह है कि पहले गुरूपदेशपूर्वक विकल्पात्मक क्षयोपशमज्ञान में निजशुद्धात्मतत्त्व का स्वरूप समझे, सम्यक् निर्णय करे; उसके उपरान्त गुरु आदि समस्त परपदार्थों से उपयोग हटाकर उपयोग को आत्मसन्मुख करे और आत्मा में ही तन्मय हो जावे। ___ यह आत्मतन्मयता ही आत्मानुभूति का उपाय है, आत्मानुभूति है; यही धर्म का आरम्भ है, यही संवर है। निरंतर वृद्धिंगत यह आत्मस्थिरता ही निर्जरा है और अनन्तकाल तक के लिए आत्मा में समा जाना ही वास्तविक मोक्ष है, जो अनन्तसुखस्वरूप है और प्राप्त करने के लिए एकमात्र परम-उपादेय है। - निमित्तोपादान, पृष्ठ-४० १. समयसार अनुशीलन भाग १ (द्वितीय संस्करण), पृष्ठ १०१-१०२
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy