SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचनसार गाथा - २६ विगत गाथाओं में युक्ति और आगम से यह सिद्ध किया गया है कि आत्मा ज्ञानप्रमाण है और ज्ञान ज्ञेयप्रमाण है; इसलिए ज्ञान सर्वगत है और अब इस गाथा में यह स्पष्ट कर रहे हैं कि ज्ञान के समान आत्मा भी सर्वगत है, जिनवरदेव भी सर्वगत हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है - सव्वगदो जिणवसहो सव्वे वि य तग्गया जगदि अट्ठा । णाणमयादो य जिणो विसयादो तस्स ते भणिदा ।। २६ ।। ( हरिगीत ) हैं सर्वगत जिन और सर्व पदार्थ जिनवरगत कहे । जिन ज्ञानमय बस इसलिए सब ज्ञेय जिनके विषय हैं ।। २६ ।। जिनवर सर्वगत हैं और जगत के सर्वपदार्थ जिनवरगत हैं; क्योंकि जिन ज्ञानमय हैं और वे सभी पदार्थ ज्ञान के विषय होने से जिन के विषय कहे गये हैं। आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - " त्रिकाल के सर्व द्रव्य - पर्यायरूप प्रवर्तमान समस्त ज्ञेयाकारों को जानने के कारण ज्ञान को सर्वगत कहा गया है और सर्वगत ज्ञानमय होने से भगवान भी सर्वगत हैं। सर्वगत ज्ञान के विषय होने से सर्व पदार्थ सर्वगत ज्ञान से अभिन्न भगवान के विषय हैं- ऐसा शास्त्रों में कहा है; इसलिए सर्वपदार्थ भगवानगत ही हैं। इसप्रकार भगवान सर्वगत हैं और सर्व पदार्थ भगवानगत हैं। निश्चयनय से अनाकुलतालक्षण सुख के संवेदन के अधिष्ठानरूप आत्मा के बराबर ही ज्ञान है। तात्पर्य यह है कि जहाँ-जहाँ सुख का संवेदन गाथा - २६ १३५ है, वहाँ-वहाँ ही ज्ञान है। ज्ञान और आनन्द का अधिष्ठान एक ही आत्मा है। उक्त निजस्वरूप आत्मप्रमाण ज्ञान को छोड़े बिना और समस्त ज्ञेयाकारों के निकट गये बिना भगवान सर्वपदार्थों को जानते हैं । निश्चयनय ऐसा होने पर भी व्यवहारनय से यह कहा जाता है कि भगवान सर्वगत हैं और नैमित्तिकभूत ज्ञेयाकारों को आत्मस्थ देखकर ऐसा उपचार से कहा जाता है कि सर्वपदार्थ आत्मगत हैं; परन्तु परमार्थतः उनका एक-दूसरे में गमन नहीं होता; क्योंकि सर्व द्रव्य स्वरूपनिष्ठ हैं, अपने-अपने में निश्चल अस्खलित हैं। यही क्रम ज्ञान में भी निश्चित करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि जिसप्रकार आत्मा और ज्ञेयों के संबंध में निश्चय-व्यवहार से कहा गया है; उसीप्रकार ज्ञान और ज्ञेयों पर भी घटित कर लेना चाहिए।" यद्यपि आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में विषय को इसीप्रकार स्पष्ट करते हैं; तथापि वे दर्पण के उदाहरण के माध्यम से आत्मा सर्वगत और सर्वपदार्थ आत्मगत हैं - इस बात को विशेष समझाते हैं । वे कहते हैं कि जिसप्रकार दर्पण में प्रतिबिम्बित मयूर को भी तो मयूर ही कहा जाता है; इसीप्रकार आत्मा में या ज्ञान में प्रतिबिम्बित लोकालोक को भी लोकालोक कहा जाता है। इसकारण यह व्यवहार वचन भी अनुचित नहीं है कि सर्वपदार्थ आत्मगत हैं; ज्ञानगत हैं और आत्मा सर्वगत है, ज्ञान सर्वगत है। इस बात को कविवर वृन्दावनदासजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ( षट्पद ) चिदरपन में था, प्रगट घट पट प्रतिभासत । मुकुर जात नाहिं तहाँ, तौ न नहिं मुकुर अवासत ।। तथा शुद्ध परकाश, ज्ञान सब ज्ञेयमांहि गत । ज्ञेय तहां थित करहिं, यहू उपचार मानियत ।।
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy