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________________ १२८ प्रवचनसार अनुशीलन ज्ञेय तो समस्त लोकालोक अर्थात् सभी हैं; इसमें भव्य-अभव्य, शुद्ध-अशुद्धसभी आ गये। सभी ज्ञेय हैं और ज्ञान सर्व को जानता है।" इसप्रकार इस गाथा में मात्र यही कहा गया है कि ज्ञान सबकुछ जानता है, अतः सर्वगत है। इसी बात को ऐसा भी कहा जा सकता है कि सभी जगत आत्मगत है; क्योंकि वह आत्मा के द्वारा जाना जाता है। लोकालोक को जानने से आत्मा लोकालोक में पहुँच गया - ऐसा कहो या लोकालोक आत्मा में आ गया - ऐसा कहो, दोनों एक-सी ही बातें हैं। ज्ञेय-ज्ञायकरूप निमित्त-नैमित्तिक संबंध होने से उक्त कथन व्यवहारनय का ही कथन है। परमार्थ से देखें तो न तो ज्ञान ज्ञेयों के पास जाता है और न ज्ञेय ज्ञान के पास आते हैं। दोनों अपनी-अपनी जगह पर रहते हुए ही ज्ञान ज्ञेयों को जान लेता है और ज्ञेय ज्ञान के जानने में आ जाते हैं। वस्तु का स्वरूप ऐसा ही है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-१८४ प्रवचनसार गाथा-२४-२५ विगत गाथा में आत्मा को ज्ञानप्रमाण बताया गया है। अब इन २४ और २५ वीं गाथाओं में उसी बात को युक्ति से सिद्ध करते हैं। गाथायें मूलतः इसप्रकार हैं - णाणप्पमाणमादा ण हवदि जस्सेह तस्स सो आदा। हीणो वा अहिओ वा णाणादो हवदि ध्रुवमेव ।।२४।। हीणो जदि सो आदा तण्णाणमचेदणं ण जाणादि । अहिओ वा णाणादो णाणेण विणा कहं जाणादि ।।२५।। (हरिगीत) अरे जिनकी मान्यता में आत्म ज्ञानप्रमाण ना। तो ज्ञान से वह हीन अथवा अधिक होना चाहिए ।।२४।। ज्ञान से हो हीन अचेतन ज्ञान जाने किसतरह। ज्ञान से हो अधिक जिय किसतरह जाने ज्ञान बिन ।।२५।। इस जगत में जिसके मत में आत्मा ज्ञानप्रमाण नहीं है; उसके मत में वह आत्मा अवश्य ही या तो ज्ञान से हीन (छोटा) होगा या फिर ज्ञान से अधिक (बड़ा) होगा। ___ यदि वह आत्मा ज्ञान से हीन (छोटा) हो तो वह ज्ञान अचेतन होने से जान नहीं सकेगा और अधिक (बड़ा) हुआ तो वह आत्मा ज्ञान के बिना कैसे जानेगा? सीधी-सी बात है कि यदि आत्मा ज्ञान के बराबर नहीं है तो या तो वह ज्ञान छोटा होगा या फिर बड़ा होगा । छोटा होने की स्थिति में ज्ञान का वह अंश कि जिसको चेतन आत्मा का आश्रय प्राप्त नहीं है, उसे अचेतनत्व प्रसंग आयेगा। उक्त ज्ञानांश को अचेतन मानने पर वह जानेगा कैसे ? क्योंकि जानना तो चेतनद्रव्य का ही काम है। - आत्मा को जानना ही सार्थक - आत्मा का ध्यान करने के लिए उसे जानना आवश्यक है। इसीप्रकार अपने आत्मा के दर्शन के लिए भी आत्मा का जानना आवश्यक है। इसप्रकार आत्मध्यानरूप चारित्र के लिए तथा आत्मदर्शनरूप सम्यग्दर्शन के लिए आत्मा का जानना जरूरी है तथा आत्मज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान के लिए तो आत्मा का जानना आवश्यक है ही। अन्ततः यही निष्कर्ष निकला कि धर्म की साधना के लिए एकमात्र निज भगवान आत्मा का जानना ही सार्थक है। - आत्मा ही है शरण, पृष्ठ-२२१
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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