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________________ गाथा-१७ १०३ १०२ प्रवचनसार अनुशीलन शुद्धोपयोग के प्रताप से स्वयं सर्वज्ञता को प्राप्त स्वयंभू भगवान ने ऐसे केवलज्ञान को प्राप्त किया कि जिसका अब अनंतकाल तक अभाव नहीं होगा और मोह-राग-द्वेष का ऐसा अभाव किया कि अब अनंतकाल तक उसका कभी उत्पाद नहीं होगा - ऐसा होने पर भी स्वयंभू भगवान में उत्पादव्ययध्रौव्य की संयुक्तता सतत विद्यमान है। वस्तुत: बात यह है कि यद्यपि प्रत्येक वस्तु प्रतिसमय परिणमित होती रहती है; अत: उसमें प्रतिसमय उत्पाद-विनाश भी होता ही रहता है। सूक्ष्मदृष्टि से देखें तो केवलज्ञान पर्याय भी प्रतिसमय नष्ट होती है और प्रतिसमय नई-नई उत्पन्न होती है; तथापि स्थूलदृष्टि से देखने पर अगले समय उत्पन्न होनेवाला केवलज्ञान भी पहले समय के केवलज्ञान जैसा ही होता है। अतः समानता के आधार पर यह कहा जाता है कि केवलज्ञान का नाश नहीं हुआ। इसीप्रकार वीतरागी पर्याय का भी प्रतिसमय अभाव होता है; किन्तु अगली पर्याय भी वैसी ही वीतरागी होती है। अत: यह कहा जाता है कि राग-द्वेष का ऐसा नाश किया कि उसका फिर कभी उत्पाद नहीं होगा। इसी अपेक्षा को ध्यान में रखकर यहाँ यह बात कही गई है कि राग का ऐसा नाश किया कि जिसका कभी उत्पाद नहीं होगा और सर्वज्ञता का ऐसा उत्पाद किया कि जिसका कभी नाश नहीं होगा तथा उसमें निरन्तर होनेवाला उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य तो विद्यमान ही है। इस गाथा का स्पष्टीकरण तत्त्वप्रदीपिका में इसप्रकार किया गया है से अविनाशीपना है। - ऐसा होने पर भी उस आत्मा के उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का समन्वय विरोध को प्राप्त नहीं होता; क्योंकि विनाशरहित उत्पाद के साथ, उत्पादरहित विनाश के साथ और उन दोनों के आधारभूत द्रव्य के साथ वह आत्मा समवेत है, तन्मयता से युक्त है, एकमेक है।" तात्पर्यवृत्ति टीका में आचार्य जयसेन इस गाथा के भाव को द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय लगाकर स्पष्ट करते हैं। उक्त गाथा के भाव को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "जैसे मक्खन से घी बनने के बाद फिर वापस घी से मक्खन नहीं हो सकता अथवा जैसे लेंडीपीपर में से चौंसठ पुटी तिखास प्रगट होने के बाद चौंसठ पुटी में से मूल सामान्यरूप लेंडीपीपर नहीं हो सकती अथवा जैसे कच्चे चने को पकाने पर वह मीठा हो जाता है; किन्तु वह पका चना फिर कच्चा चना नहीं हो सकता और वापिस फिर से नहीं उग सकता; वैसे ही शुद्ध चिदानन्द आत्मा का भान और रमणता करके पूर्णदशा प्रगट होने के बाद फिर संसार में अवतार नहीं होता। शुद्ध उपयोग के प्रसाद से पूर्णदशा होती है। जैसे चौंसठ पुटी तिखास प्रगट होने पर वापिस फिर से त्रेसठ पुटी नहीं होती। जैसे त्रेसठ पुटी तिखास चौंसठ पुटी तिखासरूप होती है; वैसे ही चिदानन्दस्वरूप भगवान आत्मा में एकाग्र होकर पूर्णदशा होती है; वह नवीनदशा है, यह दशा पहले नहीं थी। पूर्ण सर्वज्ञ पद प्रगट हुआ जो फिर पीछे नहीं जाता। पुण्य-पाप के परिणाम तो पुन:-पुनः (बारम्बार) क्रम-क्रम से बदलते हैं, किन्तु शुद्धोपयोग से जो पूर्णदशा प्रगट होती है, वह आकर फिर नहीं जाती। इसीलिए पुण्य-पाप परिणाम करने लायक नहीं है। शुद्ध स्वभाव के अवलम्बन से जो पूर्णदशा प्रगट होती है, वह सादि-अनन्तकाल रहती है। सिद्धदशा प्रत्येक समय बदलने पर भी ऐसी की ऐसी ही रहती है।' १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-१३८ “शुद्धोपयोग के प्रसाद से इस आत्मा के शुद्धात्मस्वभावरूप केवलज्ञान का उत्पाद प्रलय का अभाव होने से विनाशरहित है और अशुद्धात्मस्वभावरूप मोह-राग-द्वेष का विनाश पुन: उत्पत्ति का अभाव होने से उत्पादरहित है। इससे यह कहा गया है कि उक्त आत्मा के सिद्धरूप
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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