SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचनसार अनुशीलन इन क्रियाओं को करने की मान्यतारूप कर्तृत्व और इन्हें अपनी माननेरूप एकत्व-ममत्व तो मिथ्यात्व हैं तथा इन्हें सम्पन्न करने का रागभाव चारित्रमोहजन्य परिणाम है। ये सब आत्मा के कल्याण के कारण नहीं हैं । आत्मा का कल्याण तो एकमात्र शुद्धोपयोगरूप स्वाधीन परिणति से ही होता है - इस अभिन्न षट्कारक की प्रक्रिया से आचार्यदेव यही संदेश देना चाहते हैं। १०० यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि कारक तो आठ होते हैं; पर यहाँ तो छह ही बताये गये हैं। संबंध और संबोधन को क्यों छोड़ दिया है ? अरे भाई ! वास्तविक कारक तो छह ही होते हैं। आठ तो विभक्तियाँ होती हैं, कारक नहीं। कारक कहते ही उसे हैं; जिसका क्रिया से सीधा संबंध हो। संबंध और संबोधन का क्रिया से कोई संबंध ही नहीं है। जैसे हम कहे कि दशरथ के पुत्र राम ने रावण का वध किया। इस वाक्य में बध करनेरूप क्रिया से दशरथ का कोई संबंध नहीं है। दशरथ का संबंध तो राम से हैं, रावण की मृत्युरूप क्रिया से नहीं । इसीप्रकार जिसे संबोधित किया जाता है, उसका भी किसी क्रिया से कोई संबंध नहीं होता । इसप्रकार मूलत: तो छह ही कारक होते हैं; आठ नहीं। इस गाथा और उसकी टीका में आचार्यदेव यही कहना चाहते हैं कि आत्मा को परमात्मा बनने के लिए पर के सहयोग की रंचमात्र भी आवश्यकता नहीं है । शुभोपयोग की भी यही स्थिति है; क्योंकि स्वयं के आश्रय से, स्वयं में से, स्वयं के लिए, स्वयं के द्वारा सम्पन्न होनेवाली शुद्धोपयोगरूप परिणति ही अनंतज्ञान और अनंतसुख का एकमात्र कारण है। अतः पर के सहयोग की आकांक्षा से परसामग्री को खोजने की व्यग्रता से व्यग्रता के अतिरिक्त कुछ भी प्राप्त होनेवाला नहीं है । प्रवचनसार गाथा - १७ १६ वीं गाथा में यह स्पष्ट करने के उपरान्त कि सर्वज्ञता को प्राप्त भगवान आत्मा स्वयं स्वयंभू है, स्वयं के पुरुषार्थ से ही इस स्थिति में पहुँचा है; अब यह बताते हैं कि उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य से संयुक्त इस स्वयंभू भगवान आत्मा ने व्यय से विहीन उत्पाद और उत्पाद रहित व्यय करने का महान कमाल कर दिखाया है। मूल गाथा इसप्रकार है - भंगविहूणो य भवो संभवपरिवज्जिदो विणासो हि । विज्जदि तस्सेव पुणो ठिदिसंभवणाससमवाओ ।। १७ ।। ( हरिगीत ) यद्यपि उत्पाद बिन व्यय व्यय बिना उत्पाद है । तथापी उत्पादव्ययथिति का सहज समवाय है ।।१७।। शुद्धात्मस्वभाव को प्राप्त भगवान आत्मा के विनाशरहित उत्पाद और उत्पादरहित विनाश है तथा उसी के स्थिति, उत्पाद और विनाश का समवाय भी विद्यमान है। तात्पर्य यह है कि विनाशरहित उत्पाद और उत्पादरहित विनाश होने पर भी उस आत्मा के उत्पाद-व्यय और ध्रौव्यपना भी एकसाथ विद्यमान हैं। जिनागम में यह बात अत्यन्त स्पष्टरूप से कही गई है कि व्यय के बिना उत्पाद नहीं होता और उत्पाद के बिना व्यय नहीं होता; तथापि यहाँ विरोधाभास अलंकार के माध्यम से यह कहा गया है कि हे स्वयंभू भगवान! आपने तो ऐसा गजब किया है कि व्यय के बिना उत्पाद और उत्पाद के बिना व्यय करके दिखा दिया है और सबसे बड़ी बात यह है कि प्रत्येक वस्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से संयुक्त होती है - इस जगतप्रसिद्ध नियम को भी कायम रखा है। उक्त गाथा के माध्यम से आचार्यदेव यह कहना चाहते हैं कि
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy