SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा-१५ प्रवचनसार अनुशीलन वर्तनेवाला; पद-पद पर विशिष्ट विशुद्धशक्ति प्रगट होते जाने से अनादि संसार से बद्ध दृढ़तर मोहग्रन्थि छूट जाने से अत्यन्त निर्विकार चैतन्यवाला और समस्त ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय के नष्ट हो जाने से निर्विघ्न विकसित आत्मशक्तिवान होता हुआ भगवान आत्मा ज्ञेयों के अन्त को पा लेता है, सभी ज्ञेयों को जान लेता है। यहाँ यह कहा है कि आत्मा ज्ञानस्वभावी है और ज्ञान ज्ञेयमात्र (ज्ञेय प्रमाण) है; इसलिए समस्त ज्ञेयान्तरवर्ती ज्ञानस्वभावी आत्मा को यह आत्मा शुद्धोपयोग के प्रसाद से प्राप्त करता है; जानता है, अनुभवता है, आत्मतल्लीन होता है।” उक्त कथन का मूल तात्पर्य यही है कि जब इस आत्मा का स्वभाव जानना ही है और चार घातिया कर्मों के अभाव से समस्त प्रतिबंध समाप्त हो गये हैं तो यह भगवान आत्मा समस्त ज्ञेयों को क्यों नहीं जानेगा? समस्त ज्ञेयों में अपना भगवान आत्मा भी है; अत: उसे भी क्यों नहीं जानेगा ? इसप्रकार यह भगवान आत्मा स्व और पर सभी ज्ञेयों को जान लेता है, शुद्धोपयोग के प्रताप से केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है, सर्वज्ञ हो जाता है। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि शुद्धोपयोग के प्रसाद से यह आत्मा स्वयं को जानता है, देखता है, अनुभवता है, उसमें तल्लीन होता है। ___आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में उक्त गाथा की टीका लिखते हुए केवलज्ञान प्राप्ति की करणानुयोग सम्मत प्रक्रिया को बताते हैं। इसप्रकार वे सातवें गुणस्थान से तेरहवें गुणस्थान तक की प्रक्रिया में शुक्लध्यान के दो पायों की चर्चा करते हैं; जो मूलत: पठनीय है। कविवर वृन्दावनदासजी गाथा और उसकी टीका के भावों को दो छन्दों में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - (मत्तगयंद) जो उपयोग विशुद्ध विभाकर मंडित है चिन्मूरतराई। सो वह केवलज्ञान धनि सब ज्ञेय के पार ततच्छन जाई।। घाति चतुष्टय तास तहाँ स्वयमेव विनाश लहैं दुखदाई। शुद्धुपयोग परापति की महिमा यह वृन्द मुनिंदन गाई ।।५०।। वृन्दावन कवि कहते हैं कि मुनिराजों ने शुद्धोपयोग की प्राप्ति की महिमा इसप्रकार गाई है कि जब यह चैतन्यमूर्ति आत्मा शुद्धोपयोगरूपी सूर्य से मंडित होता है; तब वह केवलज्ञान से मंडित होकर तत्काल ज्ञेयों के पार को पा लेता है। ऐसी स्थिति में दुःख देनेवाले घातिया कर्म स्वयमेव ही नाश को प्राप्त हो जाते हैं। (षट्पद) जिस आतम के परम सुद्ध उपयोग सिद्ध हुव । तिसके जुग आवरन मोहमल विघन नास धुव ।। सकल ज्ञेय के पार जात सो आप ततच्छन । ज्ञान फुरन्त अनन्त सोई अरहंत सुलच्छन ।। महिमा महान अमलान नव केवल लाभ सुधाकरन । शिवथानदान भगवान के वृन्दावन वंदत चरन ।।५१।। जिस आत्मा का शुद्ध उपयोग परमशुद्ध होता है, उस आत्मा के ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्मों का नाश हो जाता है। ऐसा आत्मा तत्काल ही ज्ञेयों के पार को प्राप्त कर लेता है, ऐसे आत्मा को केवलज्ञान प्रगट हो जाता है और अरहंत अवस्था प्रगट हो जाती है। वृन्दावन कवि कहते हैं कि निर्मल शुद्धोपयोग की महान महिमा है कि जिससे नव केवललब्धियाँ प्रगट हो जाती हैं। ऐसे सिद्धदशा को प्राप्त भगवान के चरणों की मैं वृन्दावन कवि वंदना करता हूँ। उक्त सम्पूर्ण कथन पर प्रकाश डालते हुए स्वामीजी लिखते हैं -
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy