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________________ ८४ प्रवचनसार अनुशीलन गाथा में शुद्धोपयोगी मुनिराजों के स्वरूप का वर्णन है। तेरहवीं गाथा में अरहंत और सिद्धों के शुद्धोपयोग का वर्णन था और यहाँ अरहंत अवस्था प्राप्त करने के पूर्व जो शुद्धोपयोगदशा होती है, उसका निरूपण है; क्योंकि यहाँ चौदहवींगाथा में शुद्धात्मा आदि तत्त्वार्थों के प्रतिपादक सूत्रों के जानकार श्रुतज्ञानी शुद्धोपयोगियों की बात है और वहाँ १३ वीं गाथा में अव्याबाध अनंतसुख के धारक केवलज्ञानी शुद्धोपयोगियों की बात है। दोनों गाथाओं की दोनों टीकाओं के गहरे अध्ययन से यह बात सहज ही स्पष्ट हो जाती है। ध्यान रहे सातवें और सातवें गुणस्थान से आगे के सभी मुनिराज शुद्धोपयोगी ही तो हैं। यद्यपि आचार्य जयसेन १३ वीं गाथा से शुद्धोपयोगाधिकार का आरंभ स्वीकार करते हैं; क्योंकि १३ वीं गाथा की उत्थानिका में शुद्धोपयोगाधिकार आरंभ होने की बात वे कह चुके हैं; तथापि १४ वीं गाथा तक पीठिका मानते हैं। वे लिखते हैं कि इसप्रकार यहाँ चौदह गाथाओं और पाँच स्थलों में विभक्त पीठिका नामव पू र्ण हुआ। पर के प्रति मेरा सहज उदासीनभाव है। न जानने का विकल्प है और न नहीं जानने का विकल्प है। जानने में आ न जाएं - ऐसा भय भी नहीं है। जब आत्मा का ध्यान करने बैठे हैं; तब परद्रव्य जानने में न आ जाएं - ऐसी चिंता नहीं है। जानने में आ जाए तो उसे भी जान लेंगे। नेत्रों में कोई परद्रव्य घुस नहीं रहा है, जिसे हमें हटाना हो। आत्मा की तीव्र रुचि जहाँ हो; उपयोग स्वयमेव वहाँ चला जाता है। -समयसार का सार, पृष्ठ-२४७ प्रवचनसार गाथा १५ चौदहवीं गाथा में सूत्रार्थवेदी, संयमी, तपस्वी, शुद्धोपयोगी श्रमणों की चर्चा की थी और इस पन्द्रहवीं गाथा में शुद्धोपयोग के फल में तत्काल प्राप्त होनेवाले शुद्धात्मस्वभाव की बात करते हैं, केवलज्ञान प्राप्त होने की बात करते हैं । गाथा मूलतः इसप्रकार है - उवओगविसुद्धो जो विगदावरणंतरायमोहरओ। भूदो सयमेवादा जादि परं णेयभूदाणं ।।१५।। (हरिगीत) शुद्धोपयोगी जीव जग में घात घातीकर्मरज । स्वयं ही सर्वज्ञ हो सब ज्ञेय को हैं जानते ।।१५।। जो विशुद्ध उपयोगवाला शुद्धोपयोगी है; वह आत्मा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय और मोहरूप रज से स्वयमेव रहित होता हुआ समस्त ज्ञेयपदार्थों के पार को प्राप्त करता है अर्थात् केवलज्ञानी हो जाता है, सर्वज्ञ हो जाता है। ___ ध्यान रहे तेरहवीं गाथा में शुद्धोपयोग से प्राप्त होनेवाले अनंत, अव्याबाध, अतीन्द्रिय सुख की बात थी और यहाँ इस पन्द्रहवीं गाथा में शुद्धोपयोग से प्राप्त होनेवाले अतीन्द्रियज्ञान की बात है, अनंतज्ञान की बात है; केवलज्ञान की बात है। __ आगे के अधिकारों में अतीन्द्रिय ज्ञान और अतीन्द्रिय सुख की चर्चा स्वतंत्र अधिकारों के रूप में विस्तार से आनेवाली ही है, उसी का बीज यहाँ डाला जा रहा है। इस गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "चैतन्यपरिणामरूप उपयोग के द्वारा यथाशक्ति विशुद्ध होकर
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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