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________________ गाथा-१० प्रवचनसार अनुशीलन उक्त सम्पूर्ण विषयवस्तु पर स्वामीजी विस्तार से इसप्रकार प्रकाश डालते हैं - "भगवान की वाणी में यह आया कि परिणाम के बिना वस्तु अस्तित्व को धारण नहीं करती। प्रत्येक समय में वस्तु ध्रुव रहकर बदलती है। जगत के जितने भी पदार्थ हैं, यदि वे नित्य होने पर भी अवस्थांतरपने नहीं बदलें तो अंश के बिना अंशी वस्तुहीन हो । अंश-पर्याय, अंशी-परिणामी के बिना नहीं होती और परिणामी अर्थात् अंशी-द्रव्य बिना, परिणाम नहीं होते; इसलिए निश्चित होता है कि परवस्तुओं की अवस्था को करने में कोई समर्थ नहीं है; क्योंकि सभी पदार्थ स्वयं अपने परिणाम (स्वभाव) वाले हैं। वस्तु अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से परिणाम से पृथक् देखने में नहीं आती। परिणाम के बिना वस्तु गधे के सींग के समान है।' गुण, गुणी के बिना नहीं होते और परिणाम, परिणामी के बिना नहीं होते अर्थात् वे पृथक् नहीं होते; किन्तु वस्तु स्वयं ही ज्ञान-अज्ञान, रागअराग, सुख अथवा दुःखरूप परिणमित होती है। किसी के परिणाम, किसी दूसरे के कारण से नहीं होते । भगवान के कारण तेरे परिणाम नहीं हुए हैं। इसीप्रकार किसी की कृपा अथवा आशीर्वाद से किसी के परिणाम नहीं होते। वस्तु त्रिकाली है, किन्तु उसके परिणाम, एक समय में एक होता है। एक ही परिणाम सदा कायम नहीं रहता, किन्तु परिणाम बिना कभी वस्तु नहीं होती। प्रत्येक आत्मा, प्रत्येक पुद्गल परमाणु स्वयं अपने परिणामों से अभेद और पर से पृथक्पने परिणमन करता है। प्रत्येक के वर्तमान परिणाम उन्हीं के त्रिकाली परिणामी द्रव्य के आधार से होते हैं, उसके बिना नहीं होते - ऐसा जानकर, स्वद्रव्य अनन्तशक्ति का पिण्ड है, उसके सामने देखे तो १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-८१ २. वही, पृष्ठ-८२ निर्मल पर्याय का आधार, स्वयं का आत्मा है और वह स्वयं ही है; अत: अब, पर की ओर देखने की जरूरत नहीं रही। गधे के सींग की अवस्था नहीं है तो सींग भी नहीं है। गोरस हो और दूध, दही आदि कोई भी परिणाम न हो - ऐसा कभी नहीं होता। इसप्रकार पदार्थ के बिना परिणाम अस्तित्व को धारण नहीं करता। इसलिए जो वस्तु है वह परिणाम सहित होने से, स्वाश्रित परिणाम रहित वस्तु नहीं होती। मिथ्यात्व भ्रांति के परिणाम आत्मा के बिना नहीं होते। आत्मा न हो तो भ्रांति परिणाम का आधार जो आत्मा है, उसके बिना भ्रांति कौन करे ? जड़कर्म तो निमित्तमात्र है। निमित्त है इसलिए जीव में भ्रांति हुई है - ऐसा यहाँ नहीं कहा, किन्तु जीव है इसलिए उसकी विभाव की योग्यता से विभाव हुआ है - यह कहा है। अवस्था के बिना, वस्तु नहीं होती और वस्तु के बिना परिणाम नही होते। इन दोनों बातों को इस तरह बराबर समझे तो - उसने तीर्थंकर भगवान की वाणी का सार समझ लिया है। सर्वत्र सदा इन दोनों बातों का निश्चय रखकर वस्तु को देखे तो सच्चा समाधान और स्वसन्मुख ज्ञाता रहनेरूप धर्म हो। आत्मा, परमाणु इत्यादि छहद्रव्यरूप वस्तु परिणामस्वभावी है, अनादि-अनन्त है। वस्तु तो ऊर्ध्वतासामान्यस्वरूप द्रव्य में, सहभावी विशेषस्वरूप गुणों में और क्रमभावी विशेषरूप पर्यायों में रहती हुई, उत्पादव्यय-ध्रौव्यमय अस्तित्व से अनादिसिद्ध है; इसलिए वस्तु परिणाम स्वभाववाली अनादि-अनन्त है, इसलिए उसे कोई बनानेवाला-रचना करनेवाला नहीं है। ऊर्ध्वता अर्थात् काल की अपेक्षा से ऊँचाई। त्रिकाली प्रवाहरूप परिणाम, उसका सामान्यपना वह द्रव्य है, उसमें साथ में रहनेवाले अनन्त १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-८३
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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