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________________ ६० प्रवचनसार अनुशीलन तासौं स्यादवादी कहै यह तो विरोध बात, बिना गुन द्रव्य जैसे खर को विषान है। बिन परिनाम तैनें द्रव्य पहिचाने कैसे, परिनामहू को कहा थान विद्यमान है ||३३|| कोई मूर्ख कहता है कि द्रव्य में गुण नहीं होते, द्रव्य और गुणों का स्थान अलग-अलग है। जिसप्रकार डंडे को धारण करनेवाला डंडी (डंडेवाला) कहलाता है; उसीप्रकार गुणों को ग्रहण करने से द्रव्य गुणी कहा जाता है। उससे स्याद्वादी कहते हैं कि यह तो वस्तुस्वरूप के विरुद्ध बात है; क्योंकि गुणों के बिना तो द्रव्य गधे के सींग के समान अस्तित्वविहीन होगा । अरे भाई ! बिना परिणामों के द्रव्य को तूने पहिचाना ही कैसे और द्रव्य के बिना परिणामों का और कौन-सा स्थान है ? देखो एक गोरस त्रिविध परिनाम धरै, दूध दधि घृत में ही ताको विस्तार है। तैसे ही दरब परिनाम बिना रहै नाहिं, परिनामहू को वृन्द दरब अधार है ।। गुनपरजायवन्त द्रव्य भगवन्त कही, सुभाव सुभावी ऐसे गही गनधार है । जैसे हेम द्रव्य गुन गौरव सुपीततादि, परजाय कुण्डलादिमई निरधार है ।। ३४ ।। इस बात पर ध्यान दो कि एक गोरस दूध, दही और घी इन तीनों परिणामों को धारण किए है और उसका विस्तार इन तीनों में ही है। जिसप्रकार परिणाम के बिना द्रव्य का अस्तित्व नहीं है; वृन्दावन कवि कहते हैं कि उसीप्रकार परिणमन का आधार द्रव्य है। जिसप्रकार सोना द्रव्य है, पीलापान आदि उसके गुण हैं और कुण्डलादि उसकी पर्यायें हैं - इसप्रकार द्रव्य गुण - पर्यायवान है यह बात भगवान ने कही है और गणधरदेव ने स्वभाव-स्वभावी का स्वरूप इसीप्रकार ग्रहण किया है। गाथा - १० ६१ जैसे जो दरब ताको तैसो परिनाम होत, देखो भेदज्ञानसों न परौ दौर धूप में । तातैं जब आतमा प्रनवै शुभ वा अशुभ, अथवा विशुद्धभाव सहज स्वरूप में 11 तहाँ तिन भावनिसों तदाकार होत तब, व्याप्य अरु व्यापक को यही धर्म रूप में । कुन्दकुन्द स्वामी के वचन वृन्द इन्दु से हैं, धरा उर वृन्द तो न परौ भवकूप में ।। ३५ ।। अरे भाई ! और दौड़-धूप में पड़े बिना भेदविज्ञान से यह निर्णय कर लो कि द्रव्य जैसा होता है, उसका परिणमन भी वैसा ही होता है। इसलिए जब यह आत्मा शुभ या अशुभ अथवा सहज शुद्धभावरूप स्वरूप में परिणमित होता है; तब वह उन भावों से तदाकार होता है, तन्मय होता है; क्योंकि व्याप्य और व्यापकभावों का यही स्वभाव है। वृन्दावन कवि कहते हैं कि हे भाई! यदि कुन्दकुन्दस्वामी के उक्त वचनों को हृदय में धारण करोगे तो संसार समुद्र में नहीं पड़ोगे । उक्त छन्दों में एक बात तो यह कही गयी है कि द्रव्य, गुणों के संयोग से गुणी नहीं है; अपितु गुणस्वरूप ही है। दूसरी बात यह है कि परिणाम के बिना द्रव्य की पहिचान ही संभव नहीं है तथा आगम वस्तुको गुण - पर्यायवान कहा है। अन्त में वे सलाह देते हैं कि तुम व्यर्थ की दौड़-धूप में क्यों पड़ते हो; बस इतना जान लो कि जो द्रव्य जैसा है, उसका परिणमन भी वैसा ही होता है - इस नियम के अनुसार शुभभाव से परिणमित आत्मा शुभ है, अशुभभाव से परिणमित आत्मा अशुभ है और शुद्धभाव से परिणमित आत्मा शुद्ध है। आचार्य कुन्दकुन्द के उक्त वचनों को सच्चे दिल से स्वीकार कर लो तो संसार समुद्र से पार हो जावोगे ।
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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