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________________ प्रवचनसार अनुशीलन उत्तर - आत्मा का भान होने पर इसीप्रकार का राग शेष रह जाता है; इसलिए उसे सहचर जानकर सरागचारित्र कहा है; किन्तु यह उपचार का कथन है। वास्तव में चारित्र एक ही है, राग चारित्र नहीं है।' __स्वरूप में रमन करने को चारित्र कहा; वही वस्तु का स्वभाव होने से धर्म है। शुद्ध चैतन्य का प्रकाशित होना - ऐसा उसका अर्थ है और जैसा आत्मा का स्वभाव है; वैसा यथास्थित भाव होने से वह साम्य है। आत्मा शुद्ध चैतन्य स्वभाव में स्थित हुआ, वह आत्मगुण है। यहाँ गुण का अर्थ निर्मल पर्याय समझना । यह विषमता रहित सुस्थित आत्मा का गुण है, वह साम्य है। जो निर्विकारी परिणाम कहने में आया है, वही समताभाव है। कोई लकड़ी से मारे और समता रखे, वह वास्तविक समता नहीं है, अपितु पुण्य-पाप दोनों को एक जानकर चिदानन्द स्वरूप में स्थिरता हुई, वही वास्तव में समता है। ___महाव्रतादि का परिणाम आंशिक स्व से हटकर, चारित्रमोह में जुड़ने से होता है। मुनि को प्रमादकाल में जो व्यवहाररत्नत्रय का विकल्प आता है; उससे रहित, जितने अंश में जीव का निर्विकारी परिणाम है अथवा स्व पदार्थ में रमणता होने पर जो परिणाम होता है, उसे धर्म अथवा चारित्र कहा है। देह की क्रिया व पुण्य की क्रिया तो पर में जाती है, उसे धर्म नहीं कहते।" उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि शुभाशुभक्रिया और शुभाशुभ-भाव चारित्र नहीं है; चारित्र तो अपने त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा के आश्रय से उत्पन्न वीतरागी परिणाम ही हैं। बाह्य अनुकूलप्रतिकूल संयोगों से भी धर्म का कोई संबंध नहीं है; क्योंकि अनुकूल और प्रतिकूल संयोग तो पुण्य-पाप के उदय से संबंध रखते हैं; उनका अविनाभाव तो पुण्य-पाप के उदय के साथ है, वीतरागभावरूप धर्म के साथ नहीं। उक्त तथ्य का स्पष्टीकरण स्वामीजी ने अपने प्रवचन में विस्तार से १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-५२ २. वही, पृष्ठ-५६ ३. वही, पृष्ठ-५१ पृष्ठ-५८-५९ किया है, तत्संबंधी कतिपय उद्धरण यहाँ भी दिये ही गये हैं। प्रवचनसार गाथा-८ विगत गाथा में यह कहा गया था कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान सहित वीतराग भाव ही चारित्र है और अब इस आठवीं गाथा में यह स्पष्ट करते हैं कि आत्मा जिस समय जिस भावरूप से परिणमित होता है; उस समय उसी भावमय होता है। अत: धर्मभाव से परिणमित आत्मा ही धर्म है। गाथा मूलत: इसप्रकार हैपरिणमदि जेण दव्वं तक्कालं तम्मयं ति पण्णत्तं । तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेयव्वो ।।८।। (हरिगीत) जिसकाल में जो दरव जिस परिणाम से हो परिणमित । हो उसीमय वह धर्मपरिणत आतमा ही धर्म है ।।८।। द्रव्य जिस समय जिस भाव से परिणमित होता है, वह उस समय उसीमय होता है - ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। इसलिए धर्म परिणत आत्मा ही धर्म है। इस गाथा का पद्यानुवाद कविवर वृन्दावनदासजी इसप्रकार करते हैं (सवैया तेईसा) जब जिहि परनति दरब परनमत, तब तासों तन्मय तिहि काल । श्रीसर्वज्ञकथित यह मारग, ग्रथित गुरु गनधर गुनमाल ।। तातें धरम स्वभाव परनमत, आतमह का धरम सम्हाल । धरमी धरम एकता नय की, इहां अपेक्षा वृन्द विशाल ।।२१।। जब जो द्रव्य जिस परिणतिरूप परिणमित होता है, तब वह उससे तन्मय होता है - यह त्रिकाल अबाधित सर्वज्ञकथित मार्ग है और गुणों के धारक गुरु गणधरदेव ने इसे गूंथा है, लिपिबद्ध किया है। उक्त अबाधित नियम के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अभेदनय की अपेक्षा से धर्मी और धर्म की एकता के आधार पर धर्मरूप परिणमित आत्मा ही धर्म है।
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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