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________________ गाथा-७ प्रवचनसार अनुशीलन चला जाता हो - ऐसा नहीं है। सिंह तो शरीर को खाता है, किन्तु वह मुनि की आत्मा को किंचित् भी नहीं मार सकता। कोई कहता है कि मुनि के पास सर्प आया और मुनि के प्रभाव से डसे बिना चला गया; किन्तु चारित्र का फल पर में नहीं होता। पवित्र मुनि को भी यदि असाता का उदय हो तो सर्प डस जाता है और मुनि की मृत्यु हो जाती है; तो क्या उससे मुनि की अहिंसा चली जाती है? नहीं; अत: वस्तु का जैसा स्वतंत्र स्वभाव है, वैसा निर्णय करना चाहिए। चारित्र का प्रभाव परद्रव्य के ऊपर नहीं पड़ता / यदि परद्रव्य के ऊपर प्रभाव पड़ता हो तो मुनि के बाईस परिषह असत्य हुए, जबकि मुनि को मच्छर आदि काट लेते हैं। स्व में रमण करना अर्थात् स्व में प्रवृत्ति करना - ऐसा चारित्र का अर्थ है। दूसरा कोई आकर मुनि को न मारे - ऐसा चारित्र का अर्थ नहीं है। सम्यक् प्रकार से ज्ञान का परिणमन वह स्व-समय है। शरीर में रोग न आवे, वह चारित्र का फल नहीं है। मुनि का वचन निकले, दृष्टि पड़े और किसी को निरोगता हो जाय - ऐसी लब्धि हो अथवा न हो; उसके साथ चारित्र का कोई संबंध नहीं है। स्वयं ज्ञानमूर्ति हूँ - ऐसा अनुभव चारित्र है; किन्तु पुण्य में प्रवृत्ति चारित्र नहीं है। अट्ठाईस मूलगुण पालन की प्रवृत्ति, शुद्ध आहार-पानी लेने की वृत्ति राग है; चारित्र नहीं। धर्मी को कोई आकर मार जावे तो स्वसमय प्रवृत्ति अटक जाती हो - ऐसा नहीं होता। भूमिका के अनुसार बाहर के निमित्त होते हैं; किन्तु उससे विरुद्ध नहीं होते / तथापि बाह्य निमित्त के साथ स्वसमय की प्रवृत्ति का संबंध नहीं है।' बहुत उपदेश देवे, अनेक मंदिर बनावे, बहुत पाठशालायें चलाये; वे मुनि - ऐसा मुनि का अर्थ नहीं है। पर पदार्थ तो उनके कारण बनते हैं। 1. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-४९ 2. वही, पृष्ठ-५० 3. वही, पृष्ठ-५० यदि कदाचित् बाहर में ऐसा योग न बने तो उससे मुनिपना नहीं चला जाता / चारित्र का अर्थ ज्ञायकस्वरूप में स्वसमय की प्रवृत्ति है। व्रतादि का शुभभाव आ जाता है - किन्तु वे उसे नहीं लाते / मैं ऐसे राग को लाऊँ और इस निमित्त को बनाऊँ - ऐसा माननेवाला मूढ़ है, पर्यायबुद्धि है। ___कोई कहता है कि ‘बहुत उपदेश देना, शास्त्र लिखना, दूसरों को उद्धार करना मुनि का काम है।' - तो उसका यह कथन असत्य है; क्योंकि आत्मा पर का कुछ भी नहीं कर सकता। विकल्प कमजोरी के काल में आता है; किन्तु वह मुनि का चारित्र नहीं है। अपितु स्वभाव में चरण करना चारित्र है। स्वरूप में चरण करना चारित्र है। इसलिए स्वरूप क्या है ? उसका सर्वप्रथम निर्णय होना चाहिए। स्वयं ज्ञान और आनन्द स्वरूप है - ऐसा निर्णय होना चाहिए। यह मुनि के चारित्र की बात है; पेटे में (गर्भितरूप से) श्रावक का चारित्र भी आ जाता है। सर्वप्रथम सत्समागम में निर्णय करना चाहिए कि सर्वज्ञ भगवान द्वारा कहा गया आत्मा पूर्ण ज्ञान और आनन्द स्वरूप है; उसमें रमण करना चारित्र है। यहाँ चारित्र के चार बोल कहे हैं - 1. चारित्र, 2. धर्म, 3. साम्यभाव, 4. निर्विकारी परिणाम / ___ पूर्ण शुद्ध, आनन्द स्वरूप आत्मा में प्रवृत्ति करना चारित्र है। किसी का कल्याण करना, उद्धार करने की वृत्ति चारित्र नहीं है। अशुभ से निवृत्ति लेकर शुभ की प्रवृत्ति करना यह तो व्यवहार का स्थूल चारित्र है। ज्ञानानन्द स्वरूप की प्रवृत्ति करनेवाले को शुभराग आता है; लेकिन उसे हेयरूपअहितकर माने तो वह शुभभाव व्यवहार से चारित्र कहा जाता है। प्रश्न - यदि वह असत्यार्थ चारित्र है तो फिर उसे चारित्र क्यों कहा? 1. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-५१ 2. वही, पृष्ठ-५१-५२
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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