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________________ गाथा-७ प्रवचनसार गाथा-७ छटवीं गाथा में चारित्र के फल का निरूपण करते हुए वीतरागचारित्र को मुक्ति का कारण बताया गया है। अत: यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक ही है कि आखिर वह वीतरागचारित्र या निश्चयचारित्र क्या है, जिसका फल अनन्तसुखस्वरूप मुक्ति की प्राप्ति होना है। यही कारण है कि इस सातवीं गाथा में निश्चयचारित्र का स्वरूप स्पष्ट करते हैं। चारित्र का वास्तविक स्वरूप स्पष्ट करनेवाली वह गाथा मूलत: इसप्रकार है - चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो ।।७।। (हरिगीत) चारित्र ही बस धर्म है वह धर्म समताभाव है। दुगमोह-क्षोभविहीन निज परिणाम समताभाव है।।७।। वस्तुत: चारित्र ही धर्म है। वह धर्म साम्यभावरूप है - ऐसा कहा गया है। दर्शनमोह और क्षोभ (चारित्रमोह - राग-द्वेष) से रहित आत्मा का परिणाम ही साम्यभाव है। उक्त गाथा के भाव को कविवर वृन्दावनदासजी प्रवचनसार परमागम में तीन छन्दों में प्रस्तुत करते हैं; जो इसप्रकार है - (चौबोला) निहचै निज सुभाव में थिरता, तिहि चरित कहं धरम कहै। सोई पर्म धर्म समतामय, यो सर्वज्ञ कृपाल महै ।। जामें मोह क्षोभ नहिं व्यापत, चिद्विलास दुति वृन्द गहै। सो परिनामसहित आतम को, शाम नाम अभिराम अहै ।।१८।। (दोहा) चिदानन्द चिद्रूप को, परम धरम शमभाव । जामें मोहन राग रिस, अमल अचल थिर भाव ।।१९।। सोई विमल चारित्र है, शुद्ध सिद्धपदहेत । शामसरूपी आतमा, भविक वृन्द लखि लेत ।।२०।। अत्यन्त दयावान सर्वज्ञ भगवान कहते हैं कि समताभावपूर्वक निजस्वभाव में स्थिरता ही चारित्र है, परमधर्म है। उक्त धर्म में दर्शनमोह और क्षोभ अर्थात् राग-द्वेषमय चारित्रमोह व्याप्त नहीं होता, चैतन्य का विलास प्रकाशमान रहता है। उक्त वीतरागी परिणाम सहित आत्मा साम्य है, अभिराम है। ___ मोह-राग-द्वेष से रहित, अमल, अचल, स्थिर भावही चैतन्यस्वरूपी चिदानन्द आत्मा का परमधर्म है । मुक्ति का हेतुभूत वही निर्मलचारित्र है। भव्यजीव उक्त समभावस्वरूपी आत्मा को ही देखते हैं। चारित्र को धर्म घोषित करनेवाली उक्त गाथा सर्वाधिक चर्चित गाथा है। बाह्य क्रियाकाण्ड को चारित्र माननेवाले लोग इस गाथा के आधार पर स्वयं को महान और दूसरों को तुच्छ समझने लगते हैं। वे लोग इस बात पर ध्यान ही नहीं देते कि चारित्र को धर्म बतानेवाली यह गाथा चारित्र के स्वरूप को भी परिभाषित करती है। इस गाथा में साफ-साफ लिखा है कि न तो जड़देह की क्रिया का नाम चारित्र है और न शुभभावरूप रागभाव का नाम ही निश्चयचारित्र है। चारित्र तो मोह-क्षोभ से रहित अर्थात् मिथ्यात्व और राग-द्वेष से रहित आत्मा का वीतरागी परिणाम ही है। इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "स्वरूप में चरण करना (रमना) चारित्र है। इसका अर्थ (तात्पर्य)
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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