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________________ गाथा-६ प्रवचनसार अनुशीलन ___तात्पर्यवृत्ति में एक नया प्रमेय यह प्रस्तुत किया गया है कि असुरेन्द्र तो भवनत्रिक में होते हैं और सम्यग्दृष्टि जीव भवनत्रिक में पैदा ही नहीं होते - ऐसी स्थिति में यह कहना कि दर्शन-ज्ञानप्रधानचारित्र से असुरेन्द्रपद प्राप्त होता है - कहाँ तक ठीक है ? इसप्रकार का प्रश्न स्वयं उठाकर उसका समुचित समाधान प्रस्तुत किया है। वे लिखते हैं - "निदान बंध से सम्यक्त्व की विराधना करके असुरेन्द्रों में उत्पन्न होता है - ऐसा जानना चाहिए।" उक्त गाथा का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___“आत्मा की श्रद्धा-ज्ञान-चारित्ररूप निर्मलदशा अरागी परिणाम है और महाव्रत के परिणाम राग परिणाम हैं - ये दोनों परस्पर विरुद्ध हैं; इसलिए दोनों को ठीक नहीं माना जा सकता। उनमें अरागी परिणाम उपादेय है और राग परिणाम सर्व प्रकार से हेय है - ऐसा माने तो यथार्थ है; किन्तु दोनों को उपादेय मानें, समान माने तो वह यथार्थ नहीं है। महाव्रत का परिणाम निमित्त है व सहचर है, उसे मात्र जानने योग्यरूप व्यवहार से उपादेय कहा है, किन्तु निश्चय से वह उपादेय नहीं है। राग हेय है, शरीर-मन-वाणी की क्रिया ज्ञेय है, स्वभाव सन्मुखदशा होकर जो अरागी परिणाम होता है, वह उपादेय है; इसप्रकार जिसे हेयज्ञेय-उपादेय - इन तीन की खबर नहीं, वह मूढ़ है। आहार पानी को मैं ग्रहण कर सकता हूँ अथवा त्याग कर सकता हूँ - ऐसा मेरा स्वरूप ही नहीं है। वे तो ज्ञेय हैं तथा उनके लक्ष्य से राग की मंदता होती है, वह हेय है और जो स्वभाव-सन्मुखदशा होती है, वह उपादेय है। इसप्रकार तीनों को जानना चाहिए। निमित्त ज्ञेय, विभाव हेय और त्रिकाल स्वभाव उपादेय है - ऐसे निर्णय बिना धर्म नहीं होता। १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-४२ २. वही, पृष्ठ-४२ शुद्ध चिदानन्द आत्मा की दृष्टिपूर्वक लीनता निश्चय है, उसका फल मोक्ष है और जो महाव्रत का परिणाम आता है, वह व्यवहार है, उसका फल संसार है। इसप्रकार (साधकदशा में) एक समय में दो भाग वर्तते हैं। ____धर्मी जीव को स्वरूप की दृष्टि और लीनता अंगीकार करने योग्य है; क्योंकि उसका फल मोक्ष है । स्वयं की लीनता की कमी से, पाँच महाव्रत की वृत्ति उठती है, जिसका फल अनिष्ट है। राग निमित्त है, इसलिए उसे उपचार से सरागचारित्र कहा है। जबतक पूर्ण वीतराग न हो, तबतक राग आता है; किन्तु राग आदरणीय नहीं है । चारित्र तो वीतराग भावरूप एक ही प्रकार का है। सरागता वह चारित्र नहीं है। यदि राग को आदणीय माने तो उसने स्वभाव को आदरणीय नहीं माना; अत: वह मिथ्यादृष्टि है।" उक्त सम्पूर्ण विश्लेषण का सार यह है कि साधक की भूमिका में सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के साथ-साथ आंशिक राग और आंशिक वीतरागता रहती है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और उसके साथ रहनेवाली वीतरागता तो नियम से मुक्ति का ही कारण है; किन्तु उसके साथ रहनेवाला राग बंध का ही कारण है। उक्त राग के कारण जो बंध होता है; उसके फल में देवेन्द्रादि उच्च पदों की प्राप्ति होती है; क्योंकि वह राग प्रशस्त होता है। यह बात तो सर्वविदित ही है कि चक्रवर्तीपद और देवेन्द्रादिपद प्राप्त करानेवाला प्रशस्त राग सम्यग्दृष्टि ज्ञानी धर्मात्माओं को ही होता है। ध्यान में रखने की मूल बात यह है कि चारित्रवंत ज्ञानी धर्मात्माओं को भी साधकदशा में देवेन्द्रादि पदों को प्राप्त करानेवाला पुण्यबंध होता है; तथापि वह उपादेय नहीं, हेय ही है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-४४ ३. वही, पृष्ठ-४५
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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