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________________ ४२० प्रवचनसार अनुशीलन गाथा-९० ४२१ इसप्रकार पृथक्प से वर्तमान स्वलक्षणों के द्वारा आकाश, धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल और अन्य आत्मा को भी तीनोंकाल में ध्रुवत्व धारक द्रव्य के रूप में निश्चित करता हूँ । इसलिए मैं आकाश नहीं हूँ, धर्म नहीं हूँ, अधर्म नहीं हूँ, काल नहीं हूँ, पुद्गल नहीं हूँ और आत्मान्तर (अन्य आत्मा) भी नहीं हूँ; क्योंकि मकान के एक कमरे में जलाये गये अनेक दीपकों के प्रकाश की भाँति यह द्रव्य इकट्ठे होकर रहते हुए भी मेरा चैतन्य निजस्वरूप से अच्युत ही रहता हुआ मुझे पृथक् बतलाता है। इसप्रकार स्व-परविवेक के धारक इस आत्मा को विकार करनेवाला मोहांकुर उत्पन्न ही नहीं होता।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा के अर्थ को समझाते हुए आचार्य अमृतचन्द्र की तत्त्वप्रदीपिका टीका का ही अक्षरश: अनुकरण करते दिखाई देते हैं। कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा के भाव को प्रस्तुत करते हुए एक मनहरण कवित्त लिखते हैं, जिसमें सोदाहरण गाथा का भाव प्रस्तुत किया गया है। साथ में पाँच दोहे भी लिखते हैं, जिनमें विषयवस्तु को बड़ी ही सरलता से प्रस्तुत किया गया है। दोहे मूलत: इसप्रकार हैं - (दोहा) दरवनि में दो भांति के गुन वरतंत सदीव । हैं सामान्यस्वरूप इक एक विशेष अतीव ।।४८।। तामें आतमरसिकजन गुन विशेष उरधार । द्रव्यनि को निरधार करि सरधा धरै उदार ।।४९।। एकक्षेत्र-अवगाह में हैं षड्द्रव्य अनाद। निज निज सत्ता को धरैजदे जदे मरजाद ।।५०।। ज्यों का त्यों जानों तिन्हें तामें सो निजरूप । भिन्न लखो सब दर्व चिदानंद चिद्रूप ।।५१।। ताके अनुभवरंग में पगो 'वृन्द' सरवंग । मोह महारिपु तुरत सब होय मूल भंग ।।५२।। सभी द्रव्यों में दो प्रकार के गुण सदा ही रहते हैं। उनमें एक तो सामान्य गुण हैं और दूसरे विशेष गुण हैं। ___ आत्मरसिकजन उन गुणों में से विशेष गुणों को हृदय में धारण करके उनके आधार पर द्रव्यों का निर्धारण करते हैं और उक्त निर्धारण (निर्णय) की श्रद्धा धारण करते हैं। यद्यपि ये सभी षद्रव्य अनादि से ही एकक्षेत्रावगाहरूप से रह रहे हैं; तथापि सभी भिन्न-भिन्न मर्यादा में रहते हुए अपनी-अपनी सत्ता को धारण किये हुए हैं। उन सभी को जैसे वे हैं, वैसे ही जानकर उनमें से निजरूप जो चैतन्यस्वरूप चिदानन्द है, उसे सभी द्रव्यों से भिन्न देखो, भिन्न जानो। वृन्दावन कवि कहते हैं कि निजरूप उस आत्मा के अनुभव के रंग में सर्वांग सरावोर हो जावो। इससे महाशत्रु मोह अति शीघ्र जड़मूल से भंग हो जावेगा। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं___ “एकेन्द्रिय से सिद्ध परमात्मा पर्यन्त जितनी भी आत्माएँ हैं, वे सभी मेरे आत्मा के समान ही एक जाति की हैं, फिर वे तीनों ही काल मेरे आत्मा से पृथक् ही हैं और असमानजाति पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल - वे सभी मेरे से भिन्नरूप होने से उन छहों द्रव्यों के साथ मेरा कोई भी संबंध नहीं है। स्व-स्वामी संबंध, कर्ता-कर्म संबंध, आधार-आधेय संबंध - ऐसा एकत्व बतानेवाला किसी भी प्रकार का संबंध परद्रव्य के साथ कभी भी नहीं है, मेरे ज्ञानादि गुणों के साथ ही मेरा संबंध है; इसलिए अन्य
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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