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________________ ४१८ प्रवचनसार अनुशीलन नहीं हो सकता । जिस भाव से तीर्थंकर नाम नामकर्म बंधता है, वह भाव पुण्यास्रव है, वह केवलज्ञान का कारण नहीं है।' ज्ञानात्मक लक्षणवाला आत्मा है और अन्य लक्षणों से लक्षित वे अन्य पदार्थ हैं; इसप्रकार स्व-पर के भेदज्ञान की सिद्धि होती है और इसी भेदज्ञान से ही मोह का क्षय हो सकता है। इसीलिए स्व-पर स्वरूप की भिन्नता की सिद्धि के लिए प्रयत्न करते हैं। मिथ्यादर्शन अर्थात् दर्शनमोह और अशान्ति व राग-द्वेष वह चारित्रमोह है; इसप्रकार दोनों ही प्रकार का मोह स्वसन्मुख सावधानीरूप विवेक से नाश को प्राप्त होता है।" उक्त दोनों गाथाओं और उनकी टीका में मात्र इतनी-सी बात कही है कि जिसप्रकार तलवार धारण करने मात्र से शत्रु को नहीं जीता जाता; जबतक उक्त तलवार का उग्र पुरुषार्थ द्वारा प्रयोग न किया जाय, शत्रु पर वार न किया जाय, तबतक शत्रुओं को समाप्त नहीं किया जा सकता; तत्संबंधी आकुलता भी समाप्त नहीं होती। उसीप्रकार जिनेन्द्र भगवान का उपदेश प्राप्त हो जाने मात्र से कर्म शत्रुओं को नहीं जीता जा सकता; जबतक आत्मा मोह-राग-द्वेष पर तीव्र प्रहार नहीं करता; तबतक मोह-राग-द्वेष का नाश नहीं होता; दुखों से मुक्ति प्राप्त नहीं होती; अन्य कोई धार्मिक क्रियाकाण्ड ऐसा नहीं है कि जिससे दुखों से मुक्त हुआ जा सके। इसलिए जो पुरुष सर्व दुखों से मुक्त होना चाहते हैं; उन्हें जिनेन्द्र भगवान के उपदेश से स्व-पर भेदविज्ञान करके मोह-राग-द्वेष के नाश के लिए आत्मानुभूतिपूर्वक पर से भिन्न निज आत्मा में अपनापन स्थापित करके उसी में जम जाना, रम जाना चाहिए। १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-२९६ २. वही, पृष्ठ-३०१ ३. वही, पृष्ठ-३०२ प्रवचनसार गाथा-९० विगत गाथाओं में यह कहा गया है कि जो स्व और पर की भिन्नता जानकर स्व में जमते-रमते हैं; मोह को क्षय करनेवाले वे सर्व दुखों से मुक्त हो जाते हैं। अब इस गाथा में यह बताया जा रहा है कि अपनी निर्मोहता चाहते हो तो आगम के अभ्यास से स्व-पर भेदविज्ञान करो, स्व-पर का विवेक करो। गाथा मूलत: इसप्रकार है - तम्हा जिणमग्गादो गुणेहिं आदं परं च दव्वेसु । अभिगच्छदु णिम्मोहं इच्छदि जदि अप्पणो अप्पा ।।१०।। (हरिगीत) निर्मोह होना चाहते तो गुणों की पहिचान से। तुम भेद जानो स्व-पर में जिनमार्ग के आधार से ।।१०।। इसलिए यदि आत्मा अपनी निर्मोहता चाहता है तो जिनमार्ग से गुणों के द्वारा सभी द्रव्यों में स्व और पर को जानो। आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “मोह का क्षय करने के प्रति प्रवणबुद्धिवाले ज्ञानीजनों ! इस जगत में आगम में कथित अनन्त गुणों में से असाधारणपना को प्राप्त विशेष गुणों द्वारा स्व-पर का विवेक प्राप्त करो; जो इसप्रकार है - सत् और अहेतुक (अकारण) होने से स्वत:सिद्ध, अन्तर्मुख और बहिर्मुख प्रकाशवाला होने से स्व-पर के ज्ञायक मेरे चैतन्य द्वारा जो समानजातीय या असमानजातीय द्रव्यों को छोड़कर मेरे आत्मा में वर्तनेवाले आत्मा के द्वारा मैं अपने आत्मा को तीनोंकाल में ध्रुवत्व को धारण करनेवाला द्रव्य जानता हूँ।
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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