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________________ प्रवचनसार अनुशीलन द्वैत औ अद्वैतरूप वन्दना करौं त्रिकाल, सो दयाल देत रिद्धि सिद्धि के निधान हैं ।।१२।। ४५ लाख योजन प्रमाण जो मनुष्यक्षेत्र है, उसमें जितने भी तीर्थंकर अरहंत वर्तमान में विद्यमान हैं; भव्यरूपी कमलों के सूर्य उन विद्यमान तीर्थंकर अरहंतों के चरण कमलों में एकसाथ एवं प्रत्येक को भिन्न-भिन्न रूप से मैं वंदन करता हूँ। यद्यपि वर्तमान में भरतक्षेत्र में अरहंत विद्यमान नहीं हैं; तथापि विदेहक्षेत्र में तो सदा ही विराजमान रहते हैं। दयावान ऋद्धि और सिद्धियों के निधान को देनेवाले उन सभी को मैं द्वैतरूप से और अद्वैतरूप से त्रिकाल वंदन करता हूँ। प्रश्न - उक्त छन्द में पैंतालीस लाख योजन की बात कहाँ है ? उत्तर - पंच शून्य पंच चार का अर्थ ४५ लाख है। अंकानांवामतो गतिः' इस नियम के अनुसार अंकों की गिनती उल्टी होती है। चार और पाँच लिखकर उस पर पाँच शून्य रखो तो ४५००००० (पैंतालीस लाख) हो जाते हैं। (दोहा) आठौं अंग नवाइकै भू में दंडाकार । मुखकर सुजस उचारिये सो वन्दन विवहार ।।१३।। निज चैतन्य सुभावकरि तिनसों है लवलीन । सो अद्वैत सुवन्दना भेदरहित परवीन ।।१४।। भूमि में दण्ड के आकार में आठों अंगों को नवाकर मुख से गुणगान करना व्यवहार नमस्कार अथवा द्वैतनमस्कार है। प्रवीण लोगों के द्वारा निज चैतन्यस्वभाव से पंचपरमेष्ठी में लवलीन हो जाना अथवा निजस्वभाव में लवलीन हो जाना, एकाकार हो जाना, अभेद हो जाना अद्वैतनमस्कार या निश्चयनमस्कार है। (माधवी) गाथा-१-५ करि वंदन देव जिनिंदन की, ध्रुव सिद्ध विशुद्धन को उर ध्यावों। तिमि सर्व गनिंद गुनिंद नमों, उदघाट कपाटक ठाट मनावों ।। मुनि वृन्द जिते नरलोकविर्षे, अभिनंदित है तिनके गुन गावों। यह पंच पदस्त प्रशस्त समस्त, तिन्हें निज मस्तक हस्त लगावों ।।१५।। इनके विसराम को धाम लसै, अति उज्वल दर्शनज्ञानप्रधाना। जहंशुद्धोपयोग सुधारस वृन्द, समाधि समृद्धि की वृद्धि वखाना ।। तिहि को अवलंबि गहों समता, भवताप मिटावन मेघ महाना, जिहितें निरवान सुथान मिलै, अमलान अनूपम चेतन वाना ।।१६।। अरंहत जिनेन्द्रों को वंदन करके पूर्णत: विशुद्ध ध्रुवसिद्ध भगवानों को हृदय में धारण करो । इसीप्रकार सभी गुणवान गणधरदेवों, आचार्यों और हृदय के कपाट खोल देनेवाले उपाध्यायों को नमस्कार करो तथा नरलोक अर्थात् ढाईद्वीप में जितने भी अभिनंदित मुनिराज हैं, उनके गुणों का गान करो । इन पाँच प्रशस्त पदों में स्थित समस्त परमेष्ठियों को हाथ जोड़कर मस्तक नवाओ। इन पंचपरमेष्ठियों के विश्राम करने का अति उज्ज्वल धाम दर्शनज्ञानप्रधान आश्रम है। उक्त दर्शन-ज्ञानप्रधान आश्रम में समृद्धि और वृद्धि देनेवाला समाधिमय शुद्धोपयोगरूप अमृत बरसता है। उसका अवलंबन लेकर समता भाव ग्रहण करो; क्योंकि समताभाव संसारताप को मिटाने के लिए मेघ के समान है। उस समताभाव से ही अमल, अनुपम और चैतन्यमय निर्वाण (मुक्ति) की प्राप्ति होती है। कविवर वृन्दावनदासजी द्वारा रचित उक्त छन्दों के आधार पर यह सुनिश्चितरूप से कहा जा सकता है कि इसमें वे मात्र गाथाओं के भाव तक सीमित नहीं रहे हैं। उदाहरण के रूप में मूल गाथाओं में द्वैतनमस्कार और अद्वैतनमस्कार की बात नहीं है; इनकी चर्चा टीकाओं में आई है; फिर भी वृन्दावनदासजी
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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