SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा-१-५ प्रवचनसार अनुशीलन बनाकर छन्दोबद्ध किये गये प्रवचनसार परमागम में कविवर वृन्दावनदासजी द्वारा आचार्य कुन्दकुन्दकृत मंगलाचरण की पाँचगाथाओं और उनकी टीका काविस्तारसेकिया गया छन्दोबद्ध भावानुवाद इसप्रकार है (मत्तगयन्द) श्रीमत वीर जिनेश यही, तिनके पद वंदत हौं लवलाई। वन्दत वृन्द सुरिन्द जिन्हें, असुरिन्द नरिन्द सदा हरषाई ।। जो चउ घातिय कर्म महामल, धोइ अनन्त चतुष्टय पाई। धर्म दुधातम के करता प्रभु, तीरथरूप त्रिलोक के राई ।।७।। जिन्हें सुरेन्द्र, असुरेन्द्र और नरेन्द्र हर्षित होकर नमस्कार करते हैं, जिन्होंने चार घाति कर्मरूप मल को धोकर अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति की है, निश्चय और व्यवहार दोनों प्रकार के धर्म के जो कर्ता हैं, जो स्वयं ही तीर्थरूप हैं और तीनलोक के राजा हैं; ऐसे श्रीमान् महावीर भगवान हैं। मैं लौ लाकर उनके चरणों की वंदना करता हूँ। (चौपाई) बरतत है शासन अब जिनको। उचित प्रनाम प्रथम लिख तिनको। कुन्दकुन्द गुरु वन्दन कीना। स्याद्वादविद्या परवीना ।।८।। जिनका अभी शासन वर्त रहा है, उन महावीर भगवान को स्याद्वादविद्या में प्रवीण गुरु कुन्दकुन्ददेव ने सबसे पहले प्रणाम किया है - यह बात उचित ही है। (मनहरण) शेष तीरथेश वृषभादि आदि तेईस औ, सिद्ध सर्व शुद्ध बुद्धि के करंडवत हैं। जिनको सदैव सद्भाव शुद्धसत्ता ही में, तारनतरन को तेई तरंडवत हैं ।। आचारज उवाय साधु के सुगुन ध्याय, पंचाचारमांहि वृन्द जे अखंडवत है। येई पंच पर्म इष्ट देत है अभिष्ट शिष्ट, तिनें भक्ति भाव सों हमारी दंडवत है ।।९।। ऋषभदेव आदि शेष २३ तीर्थंकर और जिनका सद्भाव सदा शुद्ध सत्ता में ही है - ऐसे ज्ञान के निधान सभी सिद्धभगवान तारणतरण हैं। जो पंचाचारों को अखण्डरूप से पालन करते हैं - ऐसे आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधुओं के गुणों के ध्यान पूर्वक इन अत्यन्त शिष्ट, परम इष्ट, एवं पूर्णत: अभीष्ट पंचपरमेष्ठियों को अत्यन्त भक्तिभावपूर्वक हमारा दण्डवत नमस्कार हो। (दोहा) देव सिद्ध अरहंत को निज सत्ता आधार । सूर साधु उवझाय थित पंचाचारमझार ।।१०।। ज्ञान दरश चारित्र तप वीरज परम पुनीत । ये ही पंचाचार में विचरहिं श्रमण सनीत ।।११।। अरहंत और सिद्ध देव हैं और वे अपनी सत्ता के आधार से ही हैं। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य - ये ही परमपवित्र पंचाचार हैं और श्रमणजन नीति के साथ इनमें ही विचरण करते हैं। (अशोकपुष्पमंजरी) पंच शून्य पंच चार योजन प्रमान जे, मनुष्यक्षेत्र के विर्षे जिनेश वर्तमान हैं। तास के पदारविंद एक ही सु वार वृन्द, फेर भिन्न-भिन्न वंदिभव्य-अब्ज-भान हैं। वर्तमान भर्त में अबै सुवर्तमान नहिं, श्रीविदेहथान में सदैव राजमान हैं।
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy