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________________ ३८४ गाथा-८२ प्रवचनसार अनुशीलन आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्रकृत तत्त्वप्रदीपिका टीका के समान ही स्पष्ट करते हैं। उक्त गाथा का भाव कविवर वृन्दावनदासजी निम्नांकित छन्द में प्रस्तुत करते हैं - (मनहरण छन्द) ताही सुविधान करि तीरथेश अरहंत, सर्व कर्म शत्रुनि को मूलते विदारी है। तिसी भांति देय उपदेश भव्यवृन्दनि को, आप शुद्ध सिद्ध होय बरी शिवनारी है।। सोई शिवमाला विराजतु है आज लगु, अनादिसों सिद्ध पंथ यही सुखकारी है। ऐसे उपकारी सुखकारी अरहंतदेव, मनवचनकाय तिन्हें वन्दना हमारी है ।।३३।। पूर्वोक्त विधिपूर्वक ही सभी तीर्थंकर अरिहंतों ने सभी कर्मशत्रुओं को जड़मूल से उखाड़ फेंका है, विदारण कर दिया है और सभी भव्यजीवों को उसीप्रकार मोक्षमार्ग का उपदेश देकर स्वयं शुद्ध सिद्ध होकर शिवनारी का वरण किया है। आजतक हुए ऐसे अनन्त सिद्धों का समूह सिद्धशिला में विराजमान है; क्योंकि अनादि से मुक्ति प्राप्त करने का यही सुखकारी रास्ता है। अनंतसुखकारी परमोपकारी ऐसे अरहंत भगवान हैं; उनकी वंदना हम मन-वचन-काय से करते हैं। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "अरहन्त के द्रव्य-गुण-पर्याय के स्वरूप को जानकर, अनन्त जीव भगवान हुए हैं; उन्होंने ऐसा ही किया और ऐसा ही कहा है। भगवान की वाणी में ऐसा ही उपदेश आया है। यह ज्ञानतत्त्व का अधिकार है। ज्ञानस्वभावी द्रव्य, ज्ञानस्वभाव और उसकी पर्याय का स्वरूप जानकर अरहंत हुए हैं। अरहंत के द्रव्य-गुणपर्याय को जानकर स्वभाव सन्मुख होने पर शुद्धोपयोग होता है और उससे कर्म का क्षय होता है। यह एक ही प्रकार है। भगवान ने किया कुछ और हो और कहा कुछ और हो - ऐसा नहीं है। भगवान ने जिसप्रकार से किया; उसीप्रकार से कहा और मुमुक्षु जीव ऐसे ही समझें । सभी के लिए एक ही प्रकार है। भूतकाल में जितने भी तीर्थंकर हो गये हैं, उन्होंने कर्म का क्षय एक ही प्रकार से किया है और उपदेश भी ऐसा ही दिया है। भगवान को पहले छद्मस्थदशा में विकल्प था कि मेरे स्वभाव के आश्रय से मैं पूर्ण होऊँ, उसके निमित्त से तीर्थंकर नामकर्म बँधा था, इसके बाद वह विकल्प दूर होकर वे वीतराग और सर्वज्ञ हुए। जब वे कर्म उदय में आए, तब उनकी वाणी में ऐसा आया कि हे भव्य तुम तुम्हारे स्वभाव का आश्रय लेकर मुक्ति पाओ। भगवान का ज्ञान ऐसा ही है, वाणी ऐसी ही है और सुननेवाले भी यही समझते हैं। यह पूर्वापरविरोध रहित वाणी है। तेरा ज्ञान और उपदेश हम समझ गए, इसलिए मेरी मति निर्मल हुई है - ऐसा कहकर भगवान को नमस्कार किया है। __ आचार्य भगवान कहते हैं कि मेरी बुद्धि व्यवस्थित हुई है और सभी व्यग्रता मिट गई है। विशेष (अधिक) क्या कहें! सर्वज्ञ का मार्ग एक ही है। मेरी बुद्धि व्यवस्थित हुई है। पर के कारण मेरा कल्याण होगा, अहिंसा १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-२११ २. वही, पृष्ठ-२१२-२१३ ४. वही, पृष्ठ-३१३ ३. वही, पृष्ठ-३१३ ५. वही, पृष्ठ-३१७
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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