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________________ ३८२ प्रवचनसार अनुशीलन क्या उक्त दोनों कथनों में विरोधाभास नहीं है ? नहीं, कोई विरोधाभास नहीं है। बात मात्र इतनी ही है कि आत्पोलब्धि दो प्रकार की होती है - १. परपदार्थ और विकारीभावों से भिन्न शुद्ध-बुद्ध त्रिकालीध्रुव निज भगवान के परिज्ञान अर्थात् आत्मानुभूति पूर्वक उसी में अपनापन हो जाने को आत्मोपलब्धि कहते हैं। चौथे गुणस्थान में होनेवाली इस आत्मोपलब्धि में मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी कषायों का उपशमादिरूप अभाव होता है। २. उपर्युक्त आत्मोलब्धि हो जाने पर भी अभी अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कषाय संबंधी चारित्रमोह विद्यमान है। मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी कर्मों का भी यदि अभी क्षय न हुआ हो तो वे भी सत्ता में तो रहते ही हैं । इन सबको प्रमाद भी कहते हैं। अतः यहाँ कहा गया है कि दर्शनमोह नाश हो जाने पर भी प्रमादरूपी चोर (ठग) विद्यमान है और तेरी असावधानी का लाभ उठाकर तेरी प्राप्त आत्मोपलब्धिरूप निधि (खजाने) लूट सकते हैं। अत: प्रत्येक ज्ञानी आत्मा को निरन्तर सावधान रहना चाहिए। तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के बाद निश्चिन्त होकर बैठ जाना ठीक नहीं है; अपितु राग-द्वेषादि विकारी भावों को जड़मूल से उखाड़ फेंकने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहना चाहिए। अनुभूति के काल में वृद्धि और अनुभूति के वियोगकाल का निरंतर कम होते जाना ही वह पुरुषार्थ है कि जो चारित्रमोह संबंधी उक्त कर्मप्रवृत्तियों को शिथिल करेगा । अतः शुद्धोपयोग के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहना ही एक मात्र रास्ता है । प्रवचनसार गाथा-८२ ८०वीं व ८१वीं गाथा में मोहक्षय का उपाय बताने के उपरान्त अब इस ८२वीं गाथा में उपसंहार के रूप में कहते हैं कि आजतक जो भी अरहंत हुए हैं; उन सभी ने उक्त उपाय से मोह का नाश किया है और दिव्यध्वनि द्वारा इसी मार्ग को भव्यजीवों को बताया है। इसीकारण से नमस्कार करनेयोग्य हैं। यह बताकर आचार्यदेव उन अरहंत भगवान को नमस्कार करते हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार हैं सव्वे वि य अरहंता तेण विधाणेण खविदकम्मंसा । किच्चा तधोवदेसं णिव्वादा ते णमो तेसिं ॥। ८२ ।। (हरिगीत) सर्व ही अरहंत ने विधि नष्ट कीने जिस विधी । सबको बताई वही विधि हो नमन उनको सब विधी ।। ८२ ।। सभी अरहंत भगवान उसी विधि से कर्मों का क्षय करके तथा उसीप्रकार उपदेश करके मोक्ष को प्राप्त हुए हैं; अत: उन्हें नमस्कार हो । आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार व्यक्त करते हैं - “अतीतकाल में क्रमश: हुए समस्त तीर्थंकर भगवान प्रकारान्तर का असंभव होने से जिसमें द्वैत संभव नहीं है; ऐसे इसी एकप्रकार से कर्माशों का क्षय करके स्वयं अनुभव करके परमाप्तता के कारण भविष्यकाल में अथवा इस वर्तमान काल में अन्य मुमुक्षुओं को भी इसी प्रकार उपदेश देकर मोक्ष को प्राप्त हुए हैं; इसलिए निर्वाण का अन्य कोई मार्ग नहीं है - ऐसा निश्चित होता है अथवा अधिक प्रलाप से बस होओ ! मेरी मति व्यवस्थित हो गई है । भगवन्तों को नमस्कार हो।"
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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