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________________ ३५६ प्रवचनसार अनुशीलन मन के द्वारा प्रथम समझ ले तो 'यह जो आत्मा, आत्मा का एकरूप (कथंचित् सदृश) त्रैकालिक प्रवाह है सो द्रव्य है, उसका जो एकरूप रहनेवाला चैतन्यरूप विशेषण है, सो गुण है और उस प्रवाह में जो क्षणवर्ती व्यतिरेक हैं सो पर्यायें हैं' इसप्रकार अपना आत्मा भी द्रव्य-गुणपर्यायरूप से मन के द्वारा ज्ञान में आता है। इसप्रकार त्रैकालिक निज आत्मा को मन के द्वारा ज्ञान में लेकर जैसे मोतियों को और सफेदी को हार में ही अन्तर्गत करके मात्र हार ही जाना जाता है; उसीप्रकार आत्म-पर्यायों को और चैतन्यगुण को आत्मा में ही अन्तर्गर्भित करके केवल आत्मा को जानने पर परिणामी परिणाम- परिणति के भेद का विकल्प नष्ट होता जाता है; इसलिए जीव निष्क्रिय चिन्मात्र भाव को प्राप्त होता है और उससे दर्शनमोह निराश्रय होता हुआ नष्ट हो जाता है। यदि ऐसा है तो मैंने मोह की सेना पर विजय प्राप्त करने का उपाय प्राप्त कर लिया है - ऐसा कहा है।" आचार्य जयसेन इस गाथा का अर्थ करते हुए आगम और अध्यात्म - दोनों अपेक्षाओं को स्पष्ट करते हैं। वे लिखते हैं - “केवलज्ञानादि विशेष गुण और अस्तित्वादि सामान्य गुण, परमौदारिक शरीराकाररूप जो आत्मप्रदेशों का अवस्थान (आकार) वह व्यंजनपर्याय और अगुरुलघुगुण की षट्वृद्धि-हानिरूप से प्रतिसमय होनेवाली अर्थपर्यायें - इन लक्षणवाले गुण-पर्यायों का आधारभूत अमूर्त असंख्यातप्रदेशी शुद्ध चैतन्य के अन्वयरूप द्रव्य है। इसप्रकार द्रव्य-गुण- पर्याय को अरहंत परमात्मा में जानकर निश्चयनय से आगम के सारभूत अध्यात्मभाषा की अपेक्षा स्वशुद्धात्मभावना के सम्मुखरूप सविकल्प स्वसंवेदन ज्ञान से उसीप्रकार आगमभाषा की अपेक्षा अधः प्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामक दर्शनमोह के क्षय में समर्थ परिणामविशेष के बल से अपने आपको आत्मा में जोड़ता है। गाथा-८० ३५७ इसप्रकार निर्विकल्पस्वरूप प्राप्त होने पर जैसे अभेदनय से पर्यायस्थानीय मोती और गुणस्थानीय सफेदी हार ही है; उसीप्रकार अभेदनय से पूर्वोक्त द्रव्य-गुण- पर्याय आत्मा ही है। इसप्रकार परिणमित होता हुआ दर्शनमोहरूप अंधकार विनाश को प्राप्त होता है। " इस गाथा के भाव को कविवर वृन्दावनदासजी मनहरण जैसे चार बड़े छन्दों एवं एक हरिगीतिका में प्रस्तुत करते हैं; जो मूलतः पठनीय है। इन छन्दों में उन्होंने तत्त्वप्रदीपिका और तात्पर्यवृत्ति - दोनों टीकाओं के भाव को समाहित करने का पूरा-पूरा प्रयास किया है; जिसमें वे बहुत कुछ सफल भी हुए हैं। आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "इसमें स्वरूप की असावधानी और परपदार्थ के प्रति सावधानीरूप मोह को जीतने का उपाय बताया है।" पुण्य-पाप की सावधानी का भाव और ज्ञानानन्दस्वभाव की असावधानी का भाव मिथ्यात्व है। यहाँ परजीव को बचाने अथवा मारने की बात नहीं है; क्योंकि आत्मा परजीव को बचा अथवा मार नहीं सकता तथा आत्मा ज्ञानानन्दस्वरूप है, उसे छोड़कर पैसे को मिलाऊँ और प्रतिकूलता न हो तो ठीक है, अनुकूलता हो तो ठीक है; इसप्रकार पर के प्रति सावधानी भाव होता है, उसे कैसे जीतना ? वह बताते हैं । आचार्य को स्वयं तो सम्यग्दर्शन हुआ है; किन्तु जगत के लिए इसके उपाय का विचार करते हैं। अरहन्त और आत्मा समान हैं। अन्तरंग स्वभाव में फेर (अन्तर) नहीं है, पर्याय में फेर है । संसारी को अल्पज्ञता और राग-द्वेष हैं और १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ- १८९ २. वही, पृष्ठ- १८९ ३. वही, पृष्ठ- १९०
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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