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________________ गाथा-८० ३५५ प्रवचनसार गाथा-८० यह तो आपको याद होगा ही कि ७९वीं गाथा में आचार्यदेव ने यह कहा था कि अब मैंने मोह की सेना को जीतने के लिए कमर कस ली है। अत: अब इस गाथा में मोह की सेना को जीतने का उपाय बताया जा रहा है। गाथा मूलत: इसप्रकार है - जो जाणदि अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं । सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ।।८।। (हरिगीत) द्रव्य गुण पर्याय से जो जानते अरहंत को। वे जानते निज आतमा दृगमोह उनका नाश हो ।।८।। जो अरहंत भगवान को द्रव्यपने, गुणपने और पर्यायपने जानता है; वह अपने आत्मा को जानता है और उसका मोह अवश्य लय (नाश) को प्राप्त होता है। आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "जो अरहंत भगवान को द्रव्यरूप से, गुणरूप से और पर्यायरूप से जानता है; वह वस्तुतः अपने आत्मा को जानता है; क्योंकि दोनों में निश्चय से अन्तर नहीं है। अरहंत का स्वरूप अन्तिम ताव को प्राप्त होनेवाले सोने के स्वरूप की भाँति, सर्वप्रकार से स्पष्ट है; इसलिए उसका ज्ञान होने पर सर्व आत्मा का ज्ञान होता है। अन्वय द्रव्य है, अन्वय के विशेषण गुण हैं और अन्वय के व्यतिरेक (भेद) पर्यायें हैं । सर्वत: विशुद्ध भगवान अरहंत में (अरहंत के स्वरूप का ज्ञान होने पर) जीव तीनों प्रकार युक्त (द्रव्य-गुण-पर्यायमय) अपने आत्मा को अपने मन से जान लेता है। जैसे यह चेतन हैं' इसप्रकार का अन्वय द्रव्य है, अन्वय के आश्रित रहनेवाला 'चैतन्य' विशेषण गुण है और एक समयमात्र की मर्यादावाला कालपरिमाण होने से परस्पर अप्रवृत्त अन्वय के व्यतिरेक पर्यायें हैं; जो चिद्विवर्तन की ग्रन्थियाँ (गाठे) हैं। इसप्रकार त्रैकालिक आत्मा को भी एक काल में जान लेनेवाला यह जीव; जिसप्रकार मोतियों को झूलते हुए हार के अन्तर्गत माना जाता है; उसीप्रकार चिद्विवर्ती का चेतन में ही संक्षेपण करके तथा विशेषणविशेष्यता की वासना का अन्तर्धान होने से जिसप्रकार सफेदी को हार में अन्तर्हित किया जाता है; उसीप्रकार चैतन्य को चेतन में ही अन्तर्हित करके जिसप्रकार मात्र हार को जाना जाता है; उसीप्रकार केवल आत्मा को जानने पर, उसके उत्तरोत्तर क्षण में कर्ता-कर्म-क्रिया का विभाग क्षय को प्राप्त होता जाता है; इसलिए निष्क्रिय चिन्मात्रभाव को प्राप्त होता है। __इसप्रकार मणि की भाँति जिसका निर्मल प्रकाश अकम्परूप से प्रवर्तमान है - ऐसे उस चिन्मात्र भाव को प्राप्त जीव में मोहान्धकार निराश्रयता के कारण अवश्य ही प्रलय को प्राप्त होता है। यदि ऐसा है तो मैंने मोह की सेना को जीतने का उपाय प्राप्त कर लिया है।" यह गाथा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि इसमें मोह के नाश का उपाय बताया गया है। इसकी यह तत्त्वप्रदीपिका टीका भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। इस टीका का भाव भावार्थ में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - “अरहंत भगवान और अपना आत्मा निश्चय से समान है। अरहंत भगवान मोह-राग-द्वेषरहित होने से उनका स्वरूप अत्यन्त स्पष्ट है; इसलिए यदि जीव द्रव्य-गुण-पर्यायरूप से उस (अरहंत भगवान के) स्वरूप को
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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