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________________ प्रवचनसार अनुशीलन ३५० से की जा रही है। अरे भाई ! शुभभाव उतना खतरनाक नहीं है, जितना कि शुभभाव में धर्म मानना और शुभभाव होने के कारण स्वयं को या पर को धर्मात्मा मानना है; क्योंकि शुभभाव तो शुभ है; किन्तु शुभभाव को धर्म मानना, उसके कारण जीवों को धर्मात्मा मानना मिथ्यात्व नामक अशुभभाव है, महापाप है। प्रश्न - यह तो ठीक नहीं लगता; क्योंकि शुभभाव अशुभभाव से तो अच्छा है ही। अशुभभाव से तो नरकादि की प्राप्ति होती है और शुभभाव से स्वर्गादि मिलते हैं- ऐसी स्थिति में दोनों को समान कैसे माना जा सकता है ? उत्तर - दोनों में इतना ही अन्तर रहा कि शुभभाववाला स्वर्ग और अशुभभाववाला नरक जायेगा; किन्तु स्वर्ग-नरक से आकर मिथ्यात्व के फल में निगोद तो दोनों ही जायेंगे न ? निगोद के महादुखसंकट की निकटता तो दोनों में समान ही है न ? हम यह क्यों भूल जाते हैं कि नारकी तो नरक से निकल कर नियम से सैनी पंचेन्द्रिय ही होता है; पर देवता तो मरकर एकेन्द्रिय भी हो जाते हैं । अरे भाई ! तुम तो बहुत से बहुत अगले भव तक ही सोचते हो; उसके आगे की भी सोचो न ? प्रश्न - और आप भी यह क्यों भूल जाते हैं कि शुभभाववाले को पाप न बंधकर पुण्य ही बंधेगा ? उत्तर - अरे भाई ! तुम बंधने की ही बात करते हो, छूटने की तो बात ही नहीं करते। यह मनुष्यभव कर्मबंध करने के लिए नहीं मिला है, कर्मबंधन काटने के लिए मिला है। शुभभाव से कर्म बंधते हैं; कटते नहीं । कर्म काटने के लिए तो शुद्धभाव ही चाहिए। प्रश्न- फिर भी अशुभभाववालों से तो शुभभाववाले अच्छे ही हैं। गाथा - ७९ ? ३५१ उत्तर - अरे भाई ! हमें किसी से अच्छे नहीं होना है, हमें सापेक्ष अच्छे नहीं होना है; हमें तो निरपेक्ष अच्छे होना है। हम अपनी तुलना आखिर पापियों से करें ही क्यों ? तुलना ही करना है तो अरहंत-सिद्ध भगवान से क्यों न करें; क्योंकि हमें उन जैसे ही बनना है । यही कारण हैं कि जैनदर्शन में यह कहा गया है कि मम स्वरूप है सिद्ध समान । ध्यान रहे, सिद्ध समान बनने के लिए हमें मोह का सर्वथा नाश करना होगा, चाहे वह मोह शुभभावरूप हो चाहे अशुभभावरूप । - इसलिए हम सभी का कर्तव्य यह है कि जो जिस भूमिका में है; उसे उस भूमिका के योग्य जो मोह विद्यमान है; वह उस मोह का नाश करने का उद्यम करे । मिथ्यादृष्टियों को दर्शनमोह (मिथ्यात्व) और चारित्रमोह (राग-द्वेष ) सभी विद्यमान हैं; किन्तु छठवें सातवें गुणस्थान में झूलनेवाले संतों को मात्र चारित्रमोह ही है। यदि उन्हें क्षायिक सम्यग्दर्शन न हो तो सत्ता में मिथ्यात्व भी हो सकता है । इसप्रकार सभी को अपनी-अपनी भूमिका में विद्यमान मोह के नाश के लिए कमर कस लेनी चाहिए। यही कारण है कि आचार्यदेव आगामी ८०वीं गाथा में मोह के नाश के उपाय की ही चर्चा करते हैं। इस गाथा के बाद आचार्य जयसेनकृत तात्पर्यवृत्ति टीका में दो गाथाएँ प्राप्त होती हैं; जो आचार्य अमृतचन्द्रकृत की तत्त्वप्रदीपिका टीका में नहीं है। उक्त दोनों गाथाओं में अरहंत और सिद्ध भगवान को स्मरण किया गया है। इसप्रकार वे मंगलाचरण की गाथाओं जैसी ही गाथाएँ हैं; जिसे हम मध्य मंगलाचरण भी कह सकते हैं। आचार्य जयसेन की टीका में जो अतिरिक्त गाथाएँ अभी तक आई हैं, वे सभी गाथायें ऐसी ही हैं कि जिनमें अरहंत सिद्ध भगवान को याद
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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