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________________ प्रवचनसार अनुशीलन सभीप्रकार के पापारंभों को त्यागकर जो मुनिराज शुभचारित्र में वर्तते हैं और जो अनादिकालीन मोहादि शत्रुओं का परित्याग नहीं करते हैं, वे तीनकाल में भी शुद्ध आत्मा की संपत्ति प्राप्त नहीं कर सकते। यही कारण है कि संतगण मोहरूपी महाशत्रु में रमन करनेवाली दुर्बुद्धि को त्याग देते हैं । ३४८ इसलिए शुद्धोपयोग ही साध्य है और उसे प्राप्त करने में बाधक जो मोह है, उसे दृढ़तापूर्वक त्याग कर देना चाहिए। जो व्यक्ति शुभभावरूप चारित्र को ही मुक्ति का कारण जानते हैं; वे निर्मल आत्मा को कभी भी प्राप्त नहीं कर पायेंगे। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “मुनिराज मोक्ष प्राप्ति के लिए सर्वप्रकार से उद्यम करते हैं। मुनि ने पाप के परिणाम छोड़कर चारित्र को अंगीकार किया है, फिर भी यदि मैं शुभपरिणाम के वश होकर मोहादि का उन्मूलन (नाश) न करूँ तो मुझे शुद्धात्मा की प्राप्ति कहाँ से होगी ? अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति कहाँ से होगी ? ऐसा विचार करते हैं। प्रथम निर्णय किया है कि शुभ से मुक्ति नहीं, स्वभाव के आश्रय से मुक्ति है; किन्तु शुभ अवश्य आता है, वह शुभ (भाव) रहे, तबतक मुक्ति नहीं होती । इसप्रकार विचार करके साधक जीव मोहादिक का अर्थात् शुभरागादि को मूल में से नाश करने के लिए तैयार होता है, कमर बाँधी है। जो जीव समस्त सावद्य योग के प्रत्याख्यान स्वरूप परमसामायिक नामक चारित्र की प्रतिज्ञा करके भी शुभ की दोस्ती करते हैं, वे मोह को नष्ट नहीं कर सकते; दूसरे की क्या बात करना ? दूसरे तो मिथ्यात्व में १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ १७४- १८५. २. वही, पृष्ठ १८५ ३. वही, पृष्ठ- १८५ गाथा - ७९ ३४९ पड़े हैं। पाँचवें गुणस्थान में भी सामायिक होती है, किन्तु यहाँ मुनि की परमसामायिक की बात करते हैं; उनने चारित्र की प्रतिज्ञा की है, फिर भी जो अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अचौर्य अपरिग्रहता के शुभ परिणाम होते हैं, वे धूर्त अभिसारिका (नायिका) की भाँति है । शुभराग ठग है। हिंसा, झूठ, चोरी पाप है, अधर्म है। यह तो बड़ा ठग है; क्योंकि वह नरक का कारण है। जैसे धूर्त स्त्री प्रेमी को मिल जाए तो वह उसे बहुत पैसा देता है, इसलिए वह ठगनेवाली है। वैसे ही शुभराग भी धूर्त है। जो जीव शुभराग में मिलने जाए, उसके प्रेम में फंस जाए तो उसे लाभ नहीं होता । उस जीव को महादुख संकट निकट है ऐसे जीव निर्मल आत्मा को प्राप्त नहीं करते। इसप्रकार विचार करके मुनि मोह की सेना के ऊपर विजय प्राप्त करने के लिए स्वभाव सन्मुख होते हैं, पुरुषार्थ करते हैं । २" इसप्रकार इस गाथा में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में यह कहा गया है कि जो जीव अशुभभावों को छोड़ और शुभभावों में लीन रहकर अपने को धर्मात्मा मानते हैं और ऐसा समझते हैं कि हमारा कल्याण शुभभावों से ही हो जायेगा तो वे बड़े धोखे में हैं। यदि वे शुभभाव में पड़े रहे तो एकाध भव स्वर्गादिक प्राप्त कर फिर अनंतकाल तक के लिए निगोद में जानेवाले हैं। इस बात का संकेत आचार्यदेव ने इन शब्दों में दिया है कि उनके महादुख संकट निकट है। आज हमारी स्थिति तो यह है कि थोड़ा-सा शुभभाव होते ही हमें ऐसा लगने लगता है कि अब तो मैं धर्मात्मा हो गया; पर यहाँ तो मुनिराजों के होनेवाले शुभभावों में संतुष्ट होनेवालों को भी महादुखसंकट निकट है - यह कहा जा रहा है और उनके उस शुभभाव की तुलना धूर्त अभिसारिका १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ- १८६ २. वही, पृष्ठ-१८६
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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