SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४० प्रवचनसार अनुशीलन "एकसाथ सम्पूर्ण पदार्थों को जाननेवाले ज्ञान से सर्वज्ञ होते हैं - ऐसा जानकर क्या करना चाहिए? अज्ञानी जीवों के चित्त को चमत्कृत करने के कारण परमात्मभावना को नष्ट करनेवाले जो ज्योतिष, मंत्रवाद, रससिद्धि आदि एकदेशज्ञानरूप क्षयोपशमज्ञान है; तत्संबंधी आग्रह छोड़कर तीनलोक तीनकालवर्ती सम्पूर्ण वस्तुओं को एकसाथ प्रकाशित करनेवाले अविनश्वर, अखण्ड, एक प्रतिभासमय सर्वज्ञता की उत्पत्ति का कारणभूत, सम्पूर्ण रागादि विकल्पजालरहित सहज शुद्धात्मा से अभेदरूप ज्ञान की भावना करनी चाहिए। - यह तात्पर्य है।" इन गाथाओं में क्षयोपशमज्ञान की कमजोरियों को उजागर करते हुए उसके आश्रय से होनेवाले अहंकार का परिहार कर क्षायिकज्ञान की महिमा बताई गई है; क्योंकि अनंत अतीन्द्रियसुख की पूर्णतः प्राप्ति एकमात्र क्षायिकज्ञानवालों को ही होती है। यहाँ क्षयोपशमज्ञान संबंधी तीन कमजोरियों को उजागर किया गया है। कहा गया है कि केवलज्ञान के समान वह नित्य नहीं है, क्षायिक नहीं है और सर्वगत भी नहीं है; इसलिए वह सभी को नहीं जान सकता, सम्पूर्ण पर्यायों सहित अपने को भी नहीं जान सकता। अनित्य होने से आज जितना ज्ञान हमें है; कल भी उतना ही रहेगा; इसकी कोई गांरटी नहीं। क्षायिकज्ञान की तुलना में यह क्षयोपशमज्ञान अत्यन्त अल्प है, अस्पष्ट है, परोक्ष और नाशवान है। क्षायिकज्ञान सम्पूर्ण पदार्थों को उनके गुणपर्यायों सहित एक समय में एक साथ जाननेवाला है, अत्यन्त स्पष्ट है, प्रत्यक्ष है, नित्य एकरूप ही रहनेवाला है; अतः प्राप्त करने की दृष्टि से परम उपादेय है। इसप्रकार इन गाथाओं में क्षयोपशमज्ञान की लघुता और क्षायिकज्ञान की महानता बताई गई है। प्रवचनसार गाथा-५२ विगत गाथाओं में यह कहा गया है कि क्रमशः प्रवर्तमान ज्ञान क्षायोपशमिक होने से अनित्य है और क्रमिक ज्ञानवाला पुरुष सर्वज्ञ नहीं हो सकता; किन्तु अक्रम से प्रवर्तमान ज्ञान क्षायिक होने से नित्य है और अक्रमिक ज्ञानवाला पुरुष ही सर्वज्ञ हो सकता है। __अब ज्ञानाधिकार की इस अन्तिम गाथा में उपसंहार करते हुए कहते हैं कि केवलज्ञानी के ज्ञप्तिक्रिया के सद्भाव होने पर भी उन्हें क्रिया से होनेवाला बंध नहीं होता। गाथा मूलत: इसप्रकार है। ण विपरिणमदिण गेण्हदि उप्पजदिणेव तेसु अढेसु । जाणण्णवि ते आदा अबंधगो तेण पण्णत्तो ।।५२।। (हरिगीत) सवार्थ जाने जीव पर उनरूप न परिणमित हो। बस इसलिए है अबंधक ना ग्रहे ना उत्पन्न हो ।।५२।। केवलज्ञानी आत्मा पदार्थों को जानता हुआ भी उनरूप परिणमित नहीं होता, उन्हें ग्रहण नहीं करता और उन पदार्थों के रूप में उत्पन्न भी नहीं होता; इसलिए उसे अबंधक कहा है। आचार्य अमृतचन्द्र ज्ञानाधिकार के उपसंहार की इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “यहाँउदयगदा कम्मंसा जिनवरवसहेहिणियदिया भणिया। तेसु विमूढो रत्तो दुठ्ठो वा बंधमणुभवदि ।। जिनवरवृषभों ने कहा है कि संसारी जीवों के उदयगत कर्माश नियम से होते हैं। उन कर्मांशों के होने पर जीव मोही, रागी और द्वेषी होता हुआ बंध का अनुभव करता है।
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy