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________________ प्रवचनसार गाथा - ५०-५१ 'जो सबको नहीं जानता, वह सर्वपर्यायों सहित स्वयं को भी नहीं जान सकता और जो स्वयं को नहीं जानता, वह सर्वगुण-पर्यायों सहित पर को भी नहीं जान सकता ।' विगत गाथाओं में यह स्पष्ट करने के उपरान्त अब इन गाथाओं में यह बताते हैं कि क्रम-क्रम से जाननेवाला ज्ञान नित्य, क्षायिक और सर्वगत नहीं होता; किन्तु जिनदेव का नित्य रहनेवाला क्षायिक ज्ञान सभी को अक्रम (युगपद्) से जानता है; इसलिए सर्वगत है। उक्त तथ्य को स्पष्ट करनेवाली गाथाएँ मूलतः इसप्रकार हैंउप्पज्जदि जदि णाणं कमसो अट्ठे पडुच्च णाणिस्स । तं णेव हवदि णिच्चं ण खाइगं णेव सव्वगदं ।। ५० ।। तिक्कालणिच्चविसमं सयलं सव्वत्थसंभवं चित्तं । जुगवं जाणदि जोहं अहो हि णाणस्स माहप्पं । । ५१ ।। ( हरिगीत ) पदार्थ का अवलम्ब ले जो ज्ञान क्रमशः जानता । वह सर्वगत अर नित्य क्षायिक कभी हो सकता नहीं ॥५०॥ सर्वज्ञ जिन के ज्ञान का माहात्म्य तीनों काल के । जाने सदा सब अर्थ युगपद् विषम विविध प्रकार के ।। ५१ ।। यदि ज्ञानी का ज्ञान पदार्थों का अवलम्बन लेकर क्रमश: उत्पन्न होता हो तो वह ज्ञान नित्य नहीं है; क्षायिक नहीं है और सर्वगत भी नहीं है। सब क्षेत्रों के अनेक प्रकार के सभी विषम पदार्थों को जिनदेव का ज्ञान सदा एकसाथ जानता है। अहो! क्षायिकज्ञान का माहात्म्य अपार है। इन गाथाओं का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - गाथा - ५०-५१ २३९ “जो ज्ञान क्रमश: एक-एक पदार्थ का अवलम्बन लेकर प्रवृत्ति करता है; वह ज्ञान एक पदार्थ के अवलम्बन से उत्पन्न होकर दूसरे पदार्थ के अवलम्बन से नष्ट हो जाने से नित्य नहीं होता हुआ; कर्मोदय के कारण एक व्यक्तता को प्राप्त करके फिर अन्य व्यक्तता को प्राप्त करता है, इसलिए क्षायिक नहीं होता हुआ अनन्त द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव को प्राप्त होने में असमर्थ होने से सर्वगत नहीं है । वस्तुत: सर्वोत्कृष्टता का स्थानभूत क्षायिकज्ञान उत्कृष्ट महिमावंत है। जो ज्ञान एक साथ ही समस्त पदार्थों का अवलम्बन लेकर प्रवर्तता है; टंकोत्कीर्ण न्याय से अपने में समस्त वस्तुओं के ज्ञेयाकार स्थित होने से जिसने नित्यत्व प्राप्त किया है और समस्त व्यक्तता को प्राप्त कर लेने से जिसने स्व- परप्रकाशक क्षायिकभाव प्रगट किया है; वह ज्ञान विषम रहनेवाले अर्थात् असमानजातिरूप से परिणमित होनेवाले और अनंत प्रकारों के कारण विचित्रता को प्राप्त सम्पूर्ण पदार्थों के समूह को त्रिकाल में सदा जानते हुए, अक्रम से अनंत द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव को प्राप्त होने से जिसने अद्भुत माहात्म्य प्रगट किया है ऐसा सर्वगत है।" - तात्पर्य यह है कि पदार्थों को क्रम-क्रम से जाननेवाले क्षयोपशम ज्ञानी सर्वज्ञ नहीं हैं; अपितु सम्पूर्ण गुण-पर्यायों सहित सभी पदार्थों को एकसाथ जाननेवाले क्षायिकज्ञानी ही सर्वज्ञ हैं। यह सर्वज्ञता ही ज्ञान का स्वभाव है, स्वभाव परिणमन है, सदा रहनेवाली है; क्षयोपशम ज्ञानरूप अल्पज्ञता न तो सदा एक सी रहनेवाली ही है और न एकसाथ सबको जान ही सकती है। इसप्रकार यहाँ क्षायिकज्ञानरूप सर्वज्ञता की महिमा बताई गई है और क्षयोपशमज्ञानरूप अल्पज्ञता की अनित्यता, असारता स्पष्ट की गई है। आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में इन गाथाओं का निष्कर्ष निकालते हुए स्वयं प्रश्न उठाकर उत्तर देते हुए इसप्रकार मार्गदर्शन देते हैं -
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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