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________________ २०४ प्रवचनसार अनुशीलन गाथा-४३ २०५ आचार्य अमृतचन्द्र तो यहाँ मात्र इतना ही कहते हैं कि ज्ञान बंध का कारण नहीं है, मोह-राग-द्वेष ही बंध के कारण हैं; किन्तु आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में कहते हैं कि न ज्ञान बंध का कारण है और न कर्मोदय बंध का कारण है; बंध का कारण तो मोह-राग-द्वेष भाव ही हैं। वे उत्थानिका में ही लिख देते हैं कि अनंत पदार्थों के जाननेरूप परिणमित होते हुए भी न तो ज्ञान बंध का कारण है और न रागादि रहित कर्मोदय ही बंध का कारण है - यह निश्चित करते हैं। इसी बात का स्पष्टीकरण करते हुए स्वामीजी कहते हैं - “१. ज्ञानस्वभाव बन्ध का कारण नहीं है अर्थात् जानना-देखना बन्धका कारण नहीं है। २. जड़ कर्म का उदय, बन्ध का कारण नहीं है, और ३. अघाति कर्म के कारण मिले हुए संयोग भी बंध के कारण नहीं है, अपितु ४. ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव को भूलकर जो कर्म के उदय अनुसार जुड़ान करके, इष्ट-अनिष्ट की कल्पना करता है, वह मोह-राग-द्वेष को अनुभवता है - यह बन्ध का कारण है। एक तरफ कर्म का उदयभाव वर्तमान है और एकतरफ त्रिकालज्ञानभाव है। अब वर्तमान ज्ञान पर्याय, त्रिकाल स्वभाव का आश्रय नहीं लेकर, कर्म तरफ झुके तो वह मोह-राग-द्वेष करता है और कर्म का उदय होने पर भी ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव तरफ झुकाव रखे तो मोह-राग-द्वेष नहीं होते। देखो ! यहाँ द्रव्यकर्म का उदय आवे ते भावकर्म होगा ही - इस बात से इन्कार करते हैं; क्योंकि जड़-द्रव्यकर्म का उदय संसारी को सदा ही है; किन्तु उस समय ज्ञानपर्याय, ज्ञातास्वभाव में जुड़ान करे तो कर्म खिर जाते हैं। १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-३३४ २. वही, पृष्ठ-३३४ स्वरूप की सावधानी धर्म है और ज्ञेय की सावधानी अधर्म है।' यह हरा है, यह पीला है, यह जड़ पदार्थ ठीक लगता है, यह ठीक नहीं लगता - ऐसी कल्पना में अटकना विकार का अनुभव है; इसलिए अधर्म है और स्वभाव का अनुभव धर्म है। भगवान आत्मा ज्ञानभाव है। आहार-पानी, देव-गुरु-शास्त्र आदि सभी ज्ञेयों को जानते हुए स्वभाव की सावधानी छोड़कर, ज्ञेय की सावधानी में रुककर, उनमें इष्ट-अनिष्टपने की कल्पना करना कर्म का अनुभव है, धर्म का अनुभव नहीं । एक तरफ ज्ञानस्वभाव है, उसकी एकता-सावधानी वह आत्मा का अनुभव है और स्वरूप की सावधानी छोड़कर, पर-पदार्थों में, अनुकूलता-प्रतिकूलता में सावधानी करना कर्म का अनुभव है; ज्ञान का अनुभव नहीं है, आत्मा के धर्म का अनुभव नहीं। भगवान आत्मा का स्वरूप निर्विकार आनन्द है, उसमें एकाग्र रहना और जगत के पदार्थों को जानना; किन्तु उनमें ठीक-अठीक की कल्पना नहीं करना, यह आत्मा का स्वरूप है । यह धार्मिक क्रिया है । ज्ञानस्वभावी भगवान आत्मा के स्वभावसन्मुख एकाग्रता का होना आत्मा का अनुभव है। जड़ कर्म के उदय में राग मिश्रित विचार करके अनुभव करना ज्ञेय का अनुभव है, किन्तु ज्ञान का अनुभव नहीं।' ___जाननेयोग्य पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट का विभाग करना धर्म का अनुभव नहीं है, उसमें सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र भी नहीं हैं। शरीर रोगी हो तो ठीक नहीं है और निरोगी हो तो ठीक है - ऐसे दो विभाग करके रुकना आस्रव की क्रिया है। यह क्रिया ज्ञेयार्थपरिणमन में रुक गई है। इसलिए अनात्मा की क्रिया है, अधर्म है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-३३५ २. वही, पृष्ठ-३३५ ४. वही, पृष्ठ-३३५-३३६ ३. वही, पृष्ठ-३३५ ५. वही, पृष्ठ-३३६
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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