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________________ २०२ प्रवचनसार अनुशीलन है तो उस कल्पना में ज्ञान नहीं और सुख भी नहीं है। वह ज्ञेय से मुझे ज्ञान होगा, मुझे आनन्द होगा। इसतरह ज्ञेय के इष्टपने में अटकता हुआ अज्ञानी राग-द्वेष का अनुभव करता है। जो आत्मा पर में सावधानपने अनुभवता है, वह कर्म के बोझ को अनुभवता है।" उक्त सम्पूर्ण विश्लेषण से एक ही बात स्पष्ट होती है कि ज्ञेयों को जानते समय जो उनमें ही अटक जाते हैं, उनमें एकत्व-ममत्व स्थापित करते हैं, कर्तृत्व-भोक्तृत्व स्थापित करते हैं; उनके लक्ष्य से अथवा उन्हें आधार बनाकर राग-द्वेषरूप परिणमित होते हैं; वे सभी ज्ञेयार्थपरिणमनस्वभाववाले हैं। यह ज्ञेयार्थपरिणमनक्रिया अज्ञानी मिथ्यादृष्टियों को परज्ञेयों में एकत्वममत्व और कर्तृत्व-भोक्तृत्वबुद्धिपूर्वक होती है और सविकल्प ज्ञानियों के चारित्र मोहजन्य राग-द्वेषरूप और हर्ष-विषादरूप विकल्पात्मक होती है तथा वीतराग छद्मस्थों में अस्थिरतारूप होती है। तात्पर्य यह है कि क्षयोपशमज्ञान में जाने गये ज्ञेय पदार्थों में एकत्वममत्व, कर्तृत्व-भोक्तृत्व और उनके लक्ष्य से राग-द्वेषरूप परिणमन ही ज्ञेयार्थपरिणमन है। ऐसा ज्ञेयार्थपरिणमन न तो केवलज्ञानियों को होता है और न इसप्रकार परिणमनवालों को केवलज्ञान होता है; क्योंकि वे लोग तो कर्म का ही अनुभव करनेवाले हैं। अत: जिन्हें अतीन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रियसुख की कामना हो; वे ज्ञेयार्थपरिणमन से विरक्त हो निजभगवान आत्मा में रमण करें। १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-३३२ निर्दण्ड है निर्द्वन्द्व है यह निरालम्बी आतमा। निर्देह है निर्मूढ़ है निर्भयी निर्मम आतमा ।।६४।। -शुद्धात्मशतक, पृष्ठ-२३, छन्द-६४ प्रवचनसार गाथा-४३ विगत गाथा में यह कहा गया है कि ज्ञेयार्थपरिणमनक्रियावालों को केवलज्ञान नहीं होता और केवलज्ञानी के ज्ञेयार्थपरिणमनक्रिया नहीं होती। अब इस ४३ वीं गाथा में यह बताया जा रहा है कि यदि ऐसा है तो फिर इस ज्ञेयार्थपरिणमन और उसके फलरूप क्रिया का कारण क्या है ? आखिर यह होती कैसे है ? ज्ञेयार्थपरिणमनक्रिया का कारण बतानेवाली ४३ वीं गाथा मूलतः इसप्रकार है उदयगदा कम्मंसा जिणवरवसहेहिं णियदिणा भणिया। तेसु विमूढ़ो रत्तो दुट्ठो वा बंधमणुभवदि ।।४३।। (हरिगीत) जिनवर कहें उसके नियम से उदयगत कर्मांश हैं। वह राग-द्वेष-विमोह बस नित वंध का अनुभव करे ।।४३।। जिनवरों में श्रेष्ठ तीर्थंकरों ने संसारी जीवों के ज्ञानावरणादि कर्मों के उदय प्राप्त कर्मांश नियम से होते हैं - ऐसा कहा। उन उदय प्राप्त कर्माशों के होने पर यह जीव मोही, रागी और द्वेषी होता हुआ बंध का अनुभव करता है। इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार करते हैं - "संसारी जीवों के उदयगत पुद्गलकर्मांश नियम से होते ही हैं। उन उदयगत पुद्गलकर्मांशों के होने पर यह जीव उनमें ही चेतते हुए, अनुभव करते हुए मोह-राग-द्वेषरूप में परिणमित होने से ज्ञेयार्थपरिणमनरूपक्रिया से युक्त होता है और इसीकारण क्रिया के फलभूत बंध का अनुभव करता है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि मोह के उदय से ही क्रिया और क्रियाफल होता है, ज्ञान से नहीं।"
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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