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________________ १९८ प्रवचनसार अनुशीलन इस जीव की पर्यायें जो वर्तमान में अभी नहीं हुई हैं और जो बीत गई हैं, वे ज्ञेयपने का उल्लंघन नहीं करती अर्थात् उसको ज्ञेयपना प्राप्त है; इसलिए वे ज्ञान में ज्ञात हो जाती हैं।' जैसे प्रज्वलित अग्नि अनेक प्रकार की हरी एवं सूखी वनस्पति को जला डालती है, हरी वनस्पति सूखने के पश्चात् जल जाती है। वैसे ही प्रकाशमान ज्ञानदीपकरूप सर्वज्ञ का ज्ञान वर्तमान को तो जानता ही है; किन्तु भूत और भविष्य को भी जान लेता है - ऐसा स्वभाव है।" उक्त कथन का तात्पर्य यही है कि परोक्षज्ञान में इन्द्रियों का पदार्थों के साथ जबतक संबंध न हो, तबतक जानना नहीं होता। इसलिए इन्द्रियज्ञान भूत-भावी पर्यायों को नहीं जान सकता, दूरवर्ती वर्तमान पर्यायों को भी नहीं जान सकता; अत: इन्द्रियज्ञान हीन है, हेय है। अतीन्द्रियज्ञान किसी पर की सहायता से प्रवृत्त नहीं होता; इसलिए वह सभी ज्ञेयपदाथों को उनकी वर्तमान, भूत और भावी पर्यायों के साथ अत्यन्त स्पष्टरूप से एकसमय में एकसाथ जान लेता है। सभी को जानने में उसे कोई श्रम नहीं होता; क्योंकि सबको जानना उसका सहजस्वभाव है। जिसके अतीन्द्रिय ज्ञान प्रगट हो जाता है, उसके अतीन्द्रिय सुख भी नियम से प्रगट होता है; इसकारण अतीन्द्रियज्ञान परम उपादेय है। . प्रवचनसार गाथा-४२ विगत गाथाओं में इन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रियज्ञान का स्वरूप समझाते हुए यह कहा गया है कि इन्द्रियज्ञान हेय है और अतीन्द्रियज्ञान उपादेय है। अब इस ४२वीं गाथा में यह बता रहे हैं कि ज्ञेयार्थपरिणमन है लक्षण जिसका - ऐसी क्रिया ज्ञान से उत्पन्न नहीं होती। गाथा मूलतः इसप्रकार है - परिणमदि णेयमढे णादा जदि णेव खाइगं तस्स। णाणं ति तं जिणिंदा खवयंत कम्ममेवुत्ता ।।४।। (हरिगीत) ज्ञेयार्थमय जो परिणमे ना उसे क्षायिक ज्ञान हो। कहें जिनवरदेव कि वह कर्म का ही अनुभवी ।।४२।। ज्ञाता यदि ज्ञेयपदार्थरूप परिणमित होता हो तो उसके क्षायिकज्ञान होता ही नहीं । जिनेन्द्रदेवों ने उसे कर्म को ही अनुभव करनेवाला कहा है। इस गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "यदि ज्ञाता ज्ञेयपदार्थरूप परिणमित होता है तो उसे सम्पूर्ण कर्मकक्ष के क्षय से प्रवर्तमान स्वाभाविक जानपने का कारणभूत क्षायिकज्ञान नहीं है अथवा उसे ज्ञान ही नहीं है; क्योंकि प्रत्येक पदार्थ की परिणति के द्वारा मृगतृष्णा में जलसमूह की कल्पना करने की भावनावाला वह आत्मा अत्यन्त दुःसह कर्मभार को ही भोगता है - ऐसा जिनेन्द्रों ने कहा है।" गाथा की उत्थानिका में अमृतचन्द्र लिखते हैं कि ज्ञेयार्थपरिणमन है लक्षण जिसका - ऐसी क्रिया ज्ञान से नहीं होती। यहाँ ज्ञेयार्थपरिणमनक्रिया से क्या आशय है ? यह बात गहराई से जानने योग्य है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-३२८ २.वही, पृष्ठ-३२९ निजभाव को निज जान अपनापन करें जो आतमा। परभाव से हो भिन्न नित निज में रमें जो आतमा ।। वे आतमा सदृष्टि उनके ज्ञान अर वैराग्य बल । हो नियम से - यह जानिये पहिचानिये निज अ । म ब ल । । - समयसार कलश पद्यानुवाद, पृष्ठ-६९, छन्द-१३६
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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