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________________ गाथा-४०-४१ १९७ १९६ प्रवचनसार अनुशीलन इन गाथाओं के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “विषय और विषयी के सन्निपात (मिलाप) लक्षणवाले इन्द्रियों और पदार्थों के सन्निकर्ष को प्राप्त करके जो अनुक्रम से उत्पन्न ईहादिक के क्रम से जानते हैं; वे उन्हें नहीं जान सकते, जिनका स्व-अस्तित्व काल बीत गया है और जिनका अस्तित्वकाल उपस्थित नहीं हुआ है; क्योंकि अतीतअनागत पदार्थों और इन्द्रियों के ग्राह्य-ग्राहक संबंध असंभव है। उपदेश, अन्त:करण और इन्द्रियाँ आदि बहिरंग विरूपकारणता और क्षयोपशमरूप उपलब्धि वसंस्कार आदि अंतरंग स्वरूपकारणता से ग्रहण करके प्रवृत्त होता हुआ इन्द्रियज्ञान सप्रदेश को ही जानता है, अप्रदेश को नहीं जानता; क्योंकि वह स्थूल को जाननेवाला है, सूक्ष्म को नहीं; वह मूर्त को ही जानता है, अमूर्त को नहीं; क्योंकि उसका संबंध मूर्तिक के साथ ही होता है, अमूर्तिक के साथ नहीं; वह वर्तमान को ही जानता है, भूत और भविष्य को नहीं; क्योंकि उसका वर्तमान के साथ ही विषयविषयी का सन्निपात होता है, भूत-भविष्यत के साथ नहीं। परन्तु जो अनावरण अतीन्द्रियज्ञान है, वह सप्रदेश-अप्रदेश, मूर्तअमूर्त, अनुत्पन्न-व्यतीत सभी को जानता है; क्योंकि वे सभी ज्ञेय हैं, ज्ञेयता का उल्लंघन नहीं करते। जिसप्रकार अनेकप्रकार का ईंधन दाह्य होने से, दाह्यता का उल्लंघन नहीं करने से प्रज्वलित अग्नि को दाह्य (जलाने योग्य) ही हैं; अत: वह सभी को जला देती है; उसीप्रकार उक्त सभी ज्ञेय हैं, ज्ञेयता का उल्लंघन नहीं करते; इसकारण अतीन्द्रियज्ञान उन सभी को जान लेता है।" इन गाथाओं के सन्दर्भ में आचार्य जयसेन कृत तात्पर्यवृत्ति टीका एवं कविवर वृन्दावनदासजी कृत प्रवचनसार परमागम में भी इसीप्रकार का स्पष्टीकरण किया गया है। स्वामीजी उक्त गाथाओं का भाव अपने शब्दों में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "इन्द्रियज्ञान निमित्त का आश्रय करता है; इसलिए इन्द्रियज्ञान की रुचि छोड़ने लायक है। दया, दानादि का शुभराग तो आदरणीय नहीं है; किन्तु इन्द्रियज्ञान भी आदरणीय नहीं है; क्योंकि इन्द्रियज्ञान खण्ड-खण्ड जानता है और एक विषय को जानता है; इसलिए जिसे सर्वज्ञपद लेना है, उस जीव को इन्द्रियज्ञान की रुचि छोड़कर ज्ञानस्वभाव की रुचि करना चाहिए। इन्द्रियज्ञान पर का आश्रय लेता है और अतीन्द्रियज्ञान स्वभाव का आश्रय लेता है। इन्द्रियज्ञान स्वभाव का अवलम्बन नहीं लेता; इसलिए निमित्त का अवलम्बन लेता है; अत: वह ज्ञान हेय है।स्वभाव का अवलम्बन लेनेवाले ज्ञान से केवलज्ञान प्रगट होता है। देखो! समयसार, प्रवचनसार में केवलज्ञान का बीज है। जिस समय जो अवस्था होनेवाली है, वह निश्चित ही होगी- ऐसा निर्णय ज्ञानस्वभाव में होता है। केवलज्ञान को आवरण नहीं है तथा वह अतीन्द्रियज्ञान है। वह ज्ञान, अप्रदेश अर्थात् कालाणु व परमाणु को और सप्रदेश अर्थात् स्थूल स्कन्धादि, मूर्त, अमूर्त पदार्थ को जानता है तथा जो अवस्थाएँ बीत चुकी हैं - ऐसे सभी जानने में आने योग्य पदार्थों को जानता है।' १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-३१८ २. वही, पृष्ठ-३१८ ३. वही, पृष्ठ-३१९ ४. वही, पृष्ठ-३२७ ५. वही, पृष्ठ-३२८
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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