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________________ ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानाधिकार भत्तो करेदि णिच्चं उवजुत्तो तं तहा वि अहं ॥२॥ ( हरिगीत ) मन करते जिन्हें नरपति सुर-असुरपति भक्तगण । मैं भी उन्हीं सर्वज्ञजिन के चरण में करता नमन ||२|| ८५ जिन सर्वज्ञदेव को देवेन्द्र, असुरेन्द्र और बड़े-बड़े नरेन्द्र आदि भक्तगण सदा नमस्कार करते हैं; मैं भी उपयोग लगाकर भक्तिभाव से उन्हें नमस्कार करता हूँ । इसकी टीका में आचार्य जयसेन कुछ विशेष न लिखकर सामान्यार्थ ही कर देते हैं । इसप्रकार यह ज्ञानाधिकार यहाँ समाप्त होता है । इस ज्ञानाधिकार में शुद्धोपयोग के फलस्वरूप प्राप्त होनेवाले अतीन्द्रियज्ञान अर्थात् क्षायिकज्ञान - केवलज्ञान का स्वरूप विस्तार से समझाया गया है। इस अधिकार में न केवल अतीन्द्रिय अनंतसुख के साथ प्राप्त होनेवाले अतीन्द्रियज्ञान के गीत गाये गये हैं, इसकी महिमा का गुणगान किया गया है; अपितु सर्वज्ञता के स्वरूप पर गहराई से चिन्तन किया गया है, विस्तार से प्रकाश डाला गया है। विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि इसमें ज्ञान के स्वपरप्रकाशक स्वभाव पर विस्तार से प्रकाश डाला है । अत: जिन्हें सर्वज्ञता पर भरोसा नहीं है; किसी आत्मा का पर को जानना इष्ट नहीं है; अत: सर्वज्ञता भी इष्ट नहीं है; उन्हें इस प्रकरण का गइराई से मंथन करना चाहिए । सर्वज्ञता के ज्ञान और उस पर होनेवाली दृढ़ आस्था से पदार्थों के सुनिश्चित परिणमन की श्रद्धा भी जागृत होती है; जिसके फलस्वरूप अनंत आकुलता एक क्षण में समाप्त हो जाती है। पदार्थों के क्रमनियमित परिणमन को गहराई से समझने के लिए भी सर्वज्ञता एक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण साधन है । जो वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी हो, उसे ही सच्चा देव कहते हैं तथा सर्वज्ञोपदिष्ट जिनवाणी ही शास्त्र है। सर्वज्ञोपदिष्ट जिनवाणी के अनुसार आचरण करनेवाले ज्ञान-ध्यानी आत्मानुभूति सम्पन्न वीतरागी सन्त ही सच्चे गुरु हैं। इसलिए जो प्रतिदिन देवशास्त्र-गुरु की भक्ति करते हैं, पूजन करते हैं; उन्हें भी सर्वज्ञता का स्वरूप जानना अत्यन्त आवश्यक है। इसप्रकार सर्वज्ञता को समर्पित यह क्रान्तिकारी अधिकार अत्यधिक उपयोगी और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अधिकार है। इसप्रकार आचार्य कुन्दकुन्द कृत प्रवचनसार की आचार्य अमृतचन्द्र कृत तत्त्वप्रदीपिका नामक संस्कृत टीका और डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल कृत ज्ञान - ज्ञेयतत्त्वप्रबोधिनी हिन्दी में ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार के अंतर्गत ज्ञानाधिकार समाप्त होता है । ...
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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