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________________ ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानाधिकार उत्पद्यते यदि ज्ञानं क्रमशोऽर्थान् प्रतीत्य ज्ञानिनः । तन्नैव भवति नित्यं न क्षायिकं नैव सर्वगतम् ।।५०।। त्रैकाल्यनित्यविषमं सकलं सर्वत्रसंभवं चित्रम् । युगपज्जानाति जैनमहो हि ज्ञानस्य माहात्म्यम् ।।५१।। यत्किल क्रमेणैकैकमर्थमालम्ब्य प्रवर्तते ज्ञानं तदेकार्थालम्बनादुत्पन्नमन्यार्थालम्बनात् प्रलीयमानं नित्यमसत्तथा कर्मोदयादेकांव्यक्तिं प्रतिपन्नं पुनर्व्यक्त्यन्तरं प्रतिपद्यमानं क्षायिकमप्यसदनन्तद्रव्यक्षेत्रकालभावानाक्रान्तुमशक्तत्वात् सर्वगतं न स्यात् ।।५०।। क्षायिकं हि ज्ञानमतिशयास्पदीभूतपरममाहात्म्यं । यत्तु युगपदेव सर्वार्थानालम्ब्य प्रवर्तते ज्ञानं तट्टकोत्कीर्णन्यायावस्थितसमस्तवस्तुज्ञेयाकारतयाधिरोपितनित्यत्वं प्रतिपन्नसमस्तउक्त तथ्य को स्पष्ट करनेवाली गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) पदार्थ का अवलम्ब ले जो ज्ञान क्रमश: जानता। वह सर्वगत अर नित्य क्षायिक कभी हो सकता नहीं।।५०|| सर्वज्ञ जिन के ज्ञान का माहात्म्य तीनों काल के। जाने सदा सब अर्थ युगपद् विषम विविध प्रकार के ||५१|| यदि ज्ञानी का ज्ञान पदार्थों का अवलम्बन लेकर क्रमश: उत्पन्न होता हो तो वह ज्ञान नित्य नहीं है; क्षायिक नहीं है और सर्वगत भी नहीं है। सब क्षेत्रों के अनेकप्रकार के सभी विषम पदार्थों को जिनदेव का ज्ञान सदा एकसाथ जानता है। अहो! क्षायिकज्ञान कामाहात्म्य अपार है। इन गाथाओं का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “जो ज्ञान क्रमश: एक-एक पदार्थ का अवलम्बन लेकर प्रवृत्ति करता है; वह ज्ञान एक पदार्थ के अवलम्बन से उत्पन्न होकर दूसरे पदार्थ के अवलम्बन से नष्ट हो जाने से नित्य नहीं होता हुआ; कर्मोदय के कारण एक व्यक्तता को प्राप्त करके फिर अन्य व्यक्तता को प्राप्त करता है, इसलिए क्षायिक नहीं होता हुआ; अनन्त द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को प्राप्त होने में असमर्थ होने से सर्वगत नहीं है। वस्तुतः सर्वोत्कृष्टताकास्थानभूत क्षायिकज्ञान उत्कृष्ट महिमावंत है। जोज्ञान एक साथ ही समस्त पदार्थों का अवलम्बन लेकर प्रवर्तताहै; टंकोत्कीर्णन्याय से अपने में समस्त वस्तुओं के ज्ञेयाकार स्थित होने से जिसने नित्यत्व प्राप्त किया है और समस्त व्यक्तता को प्राप्त कर लेने
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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