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________________ ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानाधिकार समस्त ईंधन को जलानेवाली अग्नि का उदाहरण तो वे तत्त्वप्रदीपिका के समान ही देते हैं; किन्तु साथ ही अन्य उदाहरण भी देते हैं; जो इसप्रकार हैं - __"जिसप्रकार कोई अन्धा व्यक्ति सूर्य से प्रकाशित पदार्थों को नहीं देखता हुआ सूर्य को नहीं देखने के समान; दीपक से प्रकाशित पदार्थों को नहीं देखता हुआ दीपक को नहीं देखने के समान; दर्पण में स्थित प्रतिबिम्ब को नहीं देखते हुए दर्पण को नहीं देखने के समान; अपनी दृष्टि से प्रकाशित पदार्थों को नहीं देखता हुआ हाथ-पैर आदि अंगोंरूप से परिणत अपने शरीराकार स्वयं को अपनी दृष्टि से नहीं देखता; उसीप्रकार यह विवक्षित आत्माभी केवलज्ञान से प्रकाशित पदार्थों को नहीं जानता हुआसम्पूर्ण अखण्ड एक केवलज्ञानरूप आत्मा को भी नहीं जानता। इससे यह निश्चित हुआ कि जो सबको नहीं जानता, वह अपने को भी नहीं जानता।" उक्त उदाहरणों से यह बात पूरी तरह साफ हो गई है कि जिसप्रकार सूर्य व दीपक के प्रकाश में और दर्पण में प्रकाशित पदार्थों को नहीं जाननेवाला अंधा व्यक्ति सूर्य, दीपक और दर्पण को भी नहीं जानता; उसीप्रकार अतीन्द्रियज्ञान, केवलज्ञान में प्रतिबिम्बित पदार्थों को नहीं जाननेवाला आत्मा अतीन्द्रिय केवलज्ञान और केवलज्ञानी आत्मा को भी नहीं जान सकता। इसप्रकार विविध उदाहरणों के माध्यम से इस गाथा और इसकी टीकाओं में यह स्पष्ट किया गया है कि ज्ञान का स्वभाव कुछ ज्ञेयों को जानना नहीं है; अपितु सभी पदार्थों, उनके गुणों और उनकी पर्यायों को एकसाथ एक समय में ही जानना है, जाननेरूप परिणमना है। __ जो ज्ञाता अभी समस्त गुण-पर्यायों सहित सम्पूर्ण पदार्थों के जाननेरूप नहीं परिणम रहा है; वह अभी सम्पूर्ण गुण-पर्यायों सहित अपने आत्मा को भी नहीं जान रहा है। तात्पर्य यह है कि जो सर्व गुण-पर्यायों सहित सबको नहीं जानता; वह सर्व गुणपर्यायों सहित स्वयं को भी नहीं जान सकता। इसीप्रकार जो सर्व गुण-पर्यायों सहित स्वयं को नहीं जानता; वह सर्व गुण-पर्यायों सहित पर को भी नहीं जान सकता; क्योंकि स्व-पर को सर्व गुण-पर्यायों सहित जानना एकसाथ ही होता है, केवलज्ञान में ही होता है। अत: यह सुनिश्चित ही है कि केवलज्ञान में अपने आत्मा सहित सभी पदार्थ अपने-अपने अनंत गुण और उनकी अनन्त पर्यायों सहित प्रतिसमय एकसाथ जानने में आते हैं। वस्तुतः बात यह है कि यह भगवान आत्मा सर्वज्ञस्वभावी है, सबको देखने-जानने के स्वभाववाला है। कुछ को जानना और कुछ को नहीं जानना आत्मा का स्वभाव नहीं; अपितु
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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