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________________ ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार (मङ्गलाचरण) (अनुष्टुप् ) सर्वव्याप्येकचिद्रूपस्वरूपाय परात्मने । स्वोपलब्धिप्रसिद्धाय ज्ञानानन्दात्मने नमः ।।१।। हेलोल्लुप्तमहामोहतमस्तोमं जयत्यदः। प्रकाशयज्जगत्तत्त्वमनेकान्तमयं महः ।।२।। जिनेन्द्र भगवान के प्रवचनों (दिव्यध्वनि) का सार यह कालजयी प्रवचनसार आचार्य कुन्दकुन्द की सर्वाधिक प्रचलित अद्भुत सशक्त संरचना है। समस्त जगत को ज्ञानतत्त्व और ज्ञेयतत्त्व के रूप में प्रस्तुत करनेवाली यह अमर कृति विगत दो हजार वर्षों से निरन्तर पठनपाठन में रही है। आज भी विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में इसे स्थान प्राप्त है। यद्यपि आचार्यों में कुन्दकुन्द और उनकी कृतियों में समयसार सर्वोपरि है; तथापि समयसार अपनी विशुद्ध आध्यात्मिक विषयवस्तु के कारण विश्वविद्यालयीन पाठ्यक्रमों में स्थान प्राप्त नहीं कर सका; पर अपनी विशिष्ट शैली में वस्तुस्वरूप के प्रतिपादक प्रवचनसार का प्रवेश सर्वत्र अबाध है। प्रमाण और प्रमेय व्यवस्था का प्रतिपादक यह ग्रन्थराज आचार्य कुन्दकुन्द की एक ऐसी प्रौढ़तम कृति है कि जिसमें वे आध्यात्मिक संत के साथ-साथ गुरु-गंभीर दार्शनिक के रूप में प्रस्फुटित हुए हैं, प्रतिष्ठित हुए हैं। आचार्य जयसेन के अनुसार यदि पंचास्तिकाय की रचना संक्षेप रुचि वाले शिष्यों के लिए हुई थी, तो इस ग्रन्थराज प्रवचनसार की रचना मध्यम रुचिवाले शिष्यों के लिए हुई है। यद्यपि इस ग्रन्थराज पर अद्यावधि विभिन्न भाषाओं में अनेक टीकायें लिखी गई हैं; तथापि इस ग्रन्थराज की रचना के लगभग एक हजार वर्ष बाद और आज से लगभग एक हजार वर्ष पहले आचार्य अमृतचन्द्रकृत तत्त्वप्रदीपिका और उसके लगभग तीन सौ वर्ष बाद आचार्य जयसेनकृत तात्पर्यवृत्ति संस्कृत भाषा में लिखी गईं ऐसी टीकायें हैं कि जो आज सर्वाधिक प्रचलित हैं, पठन-पाठन में हैं। १. (क) प्रवचनसार : तात्पर्यवृत्ति, पृष्ठ-१ (ख) पंचास्तिकाय : तात्पर्यवृत्ति, पृष्ठ २
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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