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________________ ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानाधिकार अथ केवलिनां क्रियापि क्रियाफलं न साधयतीत्यनुशास्ति - ठाणणिसेजविहारा धम्मुवदेसो य णियदयो तेसिं। अरहंताणं काले मायाचारो व्व इत्थीणं।।४४।। स्थाननिषद्याविहारा धर्मोपदेशश्च नियतयस्तेषाम् । अर्हतां काले मायाचार इव स्त्रीणाम् ।।४४।। राग-द्वेष ही बंध के कारण हैं। आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में कहते हैं कि न ज्ञान बंध का कारण है और न कर्मोदय बंध का कारण है; बंध के कारण तो मोह-राग-द्वेषभाव ही हैं। वे उत्थानिका में ही लिख देते हैं कि अनंत पदार्थों के जाननेरूप परिणमित होते हुए भी न तो ज्ञान बंध का कारण है और न रागादि रहित कर्मोदय ही बंध का कारण है - अब यह निश्चित करते हैं। जिनेन्द्र भगवान द्वारा निरूपित और सुविचारित कथन यह है कि प्रत्येक संसारी जीव के ज्ञानावरणादि कर्मों का उदय सदा ही रहता है। उक्त उदयजन्य कर्मांशों के होने पर, उनमें ही चेतते हुए जो मोह-राग-द्वेषभाव होते हैं; उन मोह-राग-द्वेषरूप भावों से परिणमित होने से ही यह जीव ज्ञेयार्थपरिणमनरूप क्रिया से युक्त होता है और इसीकारण उसके फल में प्राप्त होनेवाले बंध का अनुभव करता है। निष्कर्ष यह है कि ज्ञेयार्थपरिणमनरूप क्रिया और क्रियाफलरूप बंध न तो ज्ञान से होता है, न जड़कर्म से और न कर्मोदय से प्राप्त संयोगों से ही होता है। बंध तो एकमात्र पर में एकत्वबुद्धिरूप मोह एवं राग-द्वेष से ही होता है।।४३|| ४३वीं गाथा में यह कहा गया है कि मोह-राग-द्वेषरूप भावों से परिणमित होने से ही यह जीव ज्ञेयार्थपरिणमनरूप क्रिया से युक्त होता है और इसीकारण उसके फल में प्राप्त होनेवाले बंध का अनुभव करता है। अब इस ४४वीं गाथा में यह बता रहे हैं कि यद्यपि केवली भगवान के भी विहारादि क्रियायें देखी जाती है; तथापि उन्हें उनसे बंध नहीं होता। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) यत्न बिन ज्यों नारियों में सहज मायाचार त्यों। हो विहार उठना-बैठना अर दिव्यध्वनि अरहंत के ||४४||
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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