SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 576
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट : सैंतालीस नय ५७१ अनुभवतु तदुच्चैश्चिच्चिदेवाद्य यस्माद्। अपरमिह न किंचित्तत्वमेकं परं चित् ।।२२।। समाप्तेयं तत्त्वदीपिका टीका। निज आतमा को छोड़कर इस जगत में कुछ अन्य ना। इक वही उत्तम तत्त्व है भवि उसी का अनुभव करो||२२|| इसप्रकार इस परमागम में अमन्दरूप से बलपूर्वक जो कुछ थोड़ा-बहुत तत्त्व कहा गया है; वस्तुत: वह सब अग्नि में होमीगई वस्तु के समान स्वाहा हो गया है। हे चेतन आत्मा! आज तुम उस चैतन्य को ही प्रबलरूप से अनुभव करो; क्योंकि इस जगत में उसके समान उत्तम कोई अन्य पदार्थ नहीं है; वह चेतन ही परम तत्त्व है, उत्तम तत्त्व है; परमोत्तम तत्त्व है। जिसप्रकार अग्नि में होमी गई घतादि सामग्री को अग्नि इसप्रकार खा जाती है कि मानो कुछ होमा ही नहीं गया हो। उसीप्रकार अनन्त महिमावंत चेतन आत्मा का चाहे जितना प्रतिपादन किया जाये, उसकी कितनी भी महिमा गाई जाये; तथापि वह समस्त प्रतिपादन एवं सम्पूर्ण महिमा, उस महिमावंत पदार्थ के सामने कुछ भी नहीं है। अत: अब विशेष कुछ कहने से क्या लाभ है ? हम सभी को उक्त स्वतत्त्व में ही समा जाना चाहिये। तात्पर्य यह है कि अनंत महिमावंत निज भगवान आत्मा के प्रतिपादन का तो कोई पार नहीं है; वह तो अपार है; अत: अब उसमें ही अटके रहने से कोई लाभ नहीं है; अतः अब तो स्वयं में समा जाना ही श्रेयस्कर है। यद्यपि आचार्य जयसेन कृत तात्पर्यवृत्ति टीका में भी तत्त्वप्रदीपिका टीका के समान एक परिशिष्ट दिया गया है; तथापि उसमें शेष बातें तत्त्वप्रदीपिका टीका के समान होने पर भी ४७ नयों की चर्चा नहीं है। उसके स्थान पर अत्यन्त संक्षेप में निश्चय-व्यवहार नयों से आत्मा की चर्चा की गई है; जो मूलतः पठनीय है। जिसप्रकार नाटक समयसार में कविवर पण्डित बनारसीदासजी अन्त में गुणस्थानाधिकार अपनी ओर से जोड़ देते हैं; ठीक उसीप्रकार यहाँ पण्डित देवीदासजी प्रवचनसारभाषाकवित्त में प्रवचनसार की मूल विषयवस्तु समाप्त होने के बाद बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा की चर्चा विस्तार से करते हैं; जो मूलत: पठनीय है। इसप्रकार आचार्य कुन्दकुन्द कृत प्रवचनसार की आचार्य अमृतचन्द्र कृत तत्त्वप्रदीपिका नामक संस्कृत टीका और डॉ. हुकमचन्दभारिल्ल कृत ज्ञान-ज्ञेयतत्त्वप्रबोधिनी हिन्दी टीका में परिशिष्ट के अंतर्गत सैंतालीसनय का प्रकरण समाप्त होता है।
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy