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________________ ५६८ प्रवचनसार कर्मनिर्मितस्य मोहस्य वध्यघातकविभागज्ञानपूर्वकविभागकरणात् केवलात्मभावानुभावनिश्चलीकृतवृत्तितया तोयकर इवात्मन्येवातिनिष्प्रकम्पस्तिष्ठन् युगपदेव व्याप्यानन्ताज्ञप्तिव्यक्तीरवकाशाभावान्न जातु विवर्तते, तदास्य ज्ञप्तिव्यक्तिनिमित्ततया ज्ञेयभूतासुबहिरर्थव्यक्तिषु न नाम मैत्री प्रवर्तते, तत: सुप्रतिष्ठितात्मविवेकतयात्यन्तमन्तर्मुखीभूत: पौद्गलिककर्मनिर्मापकराद्वेषद्वैतानुवृत्तिदूरीभूतो दूरत एवानुभूतपूर्वमपूर्वज्ञानानन्दस्वभावं भगवन्तमात्मानवाप्नोति । अवाप्नोत्वेव ज्ञानान्दात्मानं जगदपि परमात्मानमिति। भवति चात्र श्लोकः - पौद्गलिक कर्म रचित मोह को वध्य आत्मा और घातक मोह से भेदविज्ञानपूर्वक विभक्त करने से केवल आत्मभावना के प्रभाव से परिणति निश्चल की होने से, समुद्र की भांति अपने में ही निश्चल रहता हुआ एक साथ ही अनन्त ज्ञप्ति-व्यक्तियों (ज्ञानपर्यायों) में व्याप्त होकर अवकाश के अभाव के कारण परिवर्तन को प्राप्त नहीं होता; तब ज्ञप्तिव्यक्तियों की निमित्तरूप ज्ञेयभूत बाह्यपदार्थ व्यक्तियों के प्रति उसकी मैत्री नहीं होती; इसलिए सुप्रतिष्ठित आत्मविवेक के कारण अत्यन्त अन्तर्मुख आत्मा पौद्गलिक कर्मों के निर्माता राग-द्वेषरूप परिणमन से दूर होता हुआ अपूर्व ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान आत्मा को प्राप्त करता है। जगत भी ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मा को अवश्य प्राप्त करे। __उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि यद्यपि कर्मोदयनिमित्तक मोह भावना के कारण अज्ञान अवस्था में यह भगवान आत्मा ज्ञान के ज्ञेय बननेवाले बाह्य पदार्थों में एकत्व-ममत्व धारण करता है, उनका कर्ता-भोक्ता बनता है; इसप्रकार मोह-राग-द्वेषरूप परिणमित होता है। यही कारण है कि उक्त अज्ञानी आत्मा को भगवान आत्मा की प्राप्ति अत्यन्त दूर है; तथापि जब वही आत्मा प्रचंड कर्मकाण्ड (आत्मध्यानरूप क्रिया) से प्रचंडीकृत अखण्ड ज्ञानकाण्ड से आत्मा और मोह के बीच भेदविज्ञान करके ज्ञान में ज्ञात होनेवाले अनंत बाह्य पदार्थों में एकत्व-ममत्व नहीं करता; उनका कर्ता-भोक्ता नहीं बनता; इसप्रकार मोह-रागद्वेषरूप परिणमित नहीं होता; तब सम्पूर्ण मोह-राग-द्वेष भावों का अभाव करता हुआ भगवान आत्मा को परिपूर्ण रूप से प्राप्त करता है। टीका के उक्त अंश के अन्त में जगत के मंगल की कामना करते हुए आचार्य अमृतचन्द्रदेव कहते हैं कि सारा जगत उक्त ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मा को अवश्य प्राप्त करे। अब यहाँ आचार्य कुन्दकुन्द कृत ग्रंथाधिराज प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका टीका का समापन करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र तीन छन्द प्रस्तुत करते हैं; जिनमें से प्रथम छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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