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________________ परिशिष्ट : सैंतालीस नय कर्तृनयेन रञ्जकवद्रागादिपरिणामकर्तृ ।। ३८ ।। अकर्तृनयेन स्वकर्मप्रवृत्तरञ्जकाध्यक्षवत्केवलमेव साक्षि ।। ३९ ।। ५५७ यदि भगवान आत्मा में गुणीधर्म न होता तो फिर देशनालब्धि संभव न होती, तीर्थंकर भगवान के उपदेश का लाभ भी भगवान आत्मा को प्राप्त नहीं हो पाता; क्योंकि जब वह उसे ग्रहण ही नहीं कर पाता तो लाभ कैसे होता ? इसीप्रकार यदि अगुणीधर्म नहीं होता तो फिर इसे सभी उपदेशों को ग्रहण करना अनिवार्य हो जाता; क्योंकि साक्षीभाव से मात्र जान लेने की शक्ति का अभाव होने से किसी भी उपदेश से अलिप्त रह पाना संभव नहीं होता । उक्त दोनों धर्मों के प्रतिपादन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इस भगवान आत्मा में सदुपदेश को ग्रहण करने की शक्ति भी विद्यमान है और अवांछित उपदेश को साक्षीभाव से जानकर उसकी उपेक्षा करने की शक्ति भी विद्यमान है। इसप्रकार यह भगवान आत्मा गुणग्राही भी है और अगुणग्राही अर्थात् साक्षीभाव से रहनेवाला भी है। गुणधर्म और अगुणीधर्म - ये दोनों धर्म आत्मा के ही धर्म हैं; अतः गुणीनय और अगुणीनय दोनों नय आत्मा को ही बताते हैं । अन्य नयों के समान इन दोनों नयों का उद्देश्य भी भगवान आत्मा का स्वरूप स्पष्ट करना ही है। यहाँ अगुणीधर्म का अर्थ न तो दुर्गुणों का सद्भाव ही है और न सद्गुणों का अभाव ही, अपितु परोपदेश को साक्षीभाव से जान लेना मात्र है ।।३६-३७ ॥ इसप्रकार गुणीधर्म और अगुणीधर्म की चर्चा के उपरान्त अब कर्तृनय और अकर्तृनय की चर्चा करते हैं - 66 'आत्मद्रव्य कर्तृनय से रँगरेज के समान रागादि परिणामों का कर्त्ता है और अकर्तृनय से अपने कार्य में प्रवृत्त रँगरेज को देखनेवाले पुरुष की भाँति केवल साक्षी है ।। ३८-३९ ।।” कपड़ा रँगने का काम करनेवाले पुरुष को रँगरेज कहा जाता है। एक रँगरेज कपड़ा रँग रहा हो और उसी समय कोई दूसरा पुरुष वहीं खड़ा खड़ा वीतराग भाव से उसे कपड़ा रँगते हुए देख रहा हो - ऐसी स्थिति में यदि कपड़ा अच्छा रँगा जाये तो रँगरेज को प्रसन्नता हो है और यदि अच्छा न रँगा जावे तो उसे खेद होता है; परन्तु वीतराग भाव से उसे देखनेवाले पुरुष को किसी भी स्थिति में न तो प्रसन्नता ही होती है और न खेद ही होता है; वह तो उसे साक्षीभाव से मात्र जानता-देखता ही रहता है।
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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