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________________ ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानाधिकार तथा सत्युभयोरेचेतनत्वमचेतनयो: संयोगेऽपि न परिच्छित्तिनिष्पत्तिः । पृथक्त्ववर्तिनोरपि परिच्छेदाभ्युपगमे परपरिच्छेदेन परस्य परिच्छित्तिर्भूतिप्रभृतीनां च परिच्छित्तिप्रसूतिरनङ्कुशा स्यात् । किंच - स्वतोऽव्यतिरिक्तसमस्तपरिच्छेद्याकारपरिणतं ज्ञानं स्वयं परिणममानस्य कार्यभूतसमस्तज्ञेयाकारकारणीभूताः सर्वेऽर्था ज्ञानवर्तिन एव कथंचिद्भवन्ति, किं ज्ञातृज्ञानविभागक्लेशकल्पनया ।। ३५ ।। अथ किं ज्ञानं कि ज्ञेयमिति व्यनक्ति - तम्हा णाणं जीवो णेयं दव्वं तिहा समक्खादं । दव्वं ति पुणो आदा परं च परिणामसंबद्धं ॥ ३६ ॥ ५१ यदि ऐसा हो तो दोनों में अचेतनता आ जावेगी और दो अचेतनों का संयोग होने पर भी ज्ञप्ति उत्पन्न नहीं होगी । आत्मा और ज्ञान के पृथग्वर्ती होने पर भी यदि आत्मा को ज्ञप्ति होना माना जाय तो पर (एक व्यक्ति) के ज्ञान द्वारा पर (दूसरे व्यक्ति) को ज्ञप्ति हो जावेगी और इसप्रकार राख आदि के भी ज्ञप्ति का उद्भव निरकुंश हो जावेगा । दूसरी बात यह है कि अपने से अभिन्न समस्त ज्ञेयाकाररूप परिणमित ज्ञानरूप स्वयं परिणमित होनेवाले को, कार्यभूत समस्त ज्ञेयाकारों के कारणभूत समस्त पदार्थ कथंचित् ज्ञानवर्ती ही हैं; इसलिए ज्ञाता और ज्ञान के विभाग की क्लिष्ट कल्पना से क्या प्रयोजन है ?" टीका में अत्यन्त स्पष्टरूप से इस बात का उल्लेख है कि आत्मा और ज्ञान को सर्वथा भिन्न मानने पर दोनों ही अचेतन हो जायेंगे और यह तो सुनिश्चित ही है कि दो अचेतन मिलकर भी जानने का काम नहीं कर सकते; क्योंकि ज्ञानचेतना से रहित आत्मा तो अचेतन होगा ही तथा अचेतन द्रव्य के आश्रय में रहने के कारण ज्ञानगुण अचेतन सिद्ध होगा। दूसरी बात यह है कि जब आत्मा और ज्ञान सर्वथा भिन्न-भिन्न ही हैं तो फिर ज्ञान आत्मा से ही क्यों जुड़े, अन्य अजीव पदार्थों से क्यों नहीं ? वह राख आदि जड़ पदार्थों से भी जुड़ सकता है। यदि ऐसा हुआ तो राख आदि पदार्थ भी जानने-देखने लग जावेंगे; पर ऐसा होता नहीं है । अतः आत्मा कर्ता और ज्ञान करण - ऐसा विभाग करने से भी क्या लाभ है ? 'आत्मा ज्ञान से जानता है' के स्थान पर 'ज्ञानस्वभावी आत्मा स्वयं से जानता है' यही ठीक है अथवा आत्मा जानता है- इतना ही पर्याप्त है ॥ ३५ ॥
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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