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________________ ५५२ प्रवचनसार दैववादी (भाग्यवादी) को दे दिया। सद्भाग्य से इस दैववादी (भाग्यवादी) को उस नीबू के पेड़ में या मधुछत्ते में एक बहुमूल्य माणिक्य की भी प्राप्ति हो गई। उक्त घटना को उदाहरण बनाकर यहाँ स्पष्ट किया जा रहा है कि जिसप्रकार पुरुषार्थवादी को तो नीबू के पेड़ों या मधुछत्तों की प्राप्ति बड़े प्रयत्न से हुई है, किन्तु दैववादी को बिना ही प्रयत्न के नीबू का पेड़ और मधुछत्ते के साथ-साथ बहुमूल्य माणिक्य की भी प्राप्ति हो गई; उसीप्रकार यह आत्मद्रव्य पुरुषकारनय से यत्नसाध्य सिद्धिवाला है और दैवनय से अयत्नसाध्य सिद्धिवाला है। इसप्रकार इस भगवान आत्मा की सिद्धि यत्नसाध्य भी है और अयत्नसाध्य भी है। अनन्तधर्मात्मक इस भगवान आत्मा में अन्य अनन्त धर्मों के समान एक पुरुषकार अथवा पुरुषार्थ नामक धर्म भी है, जिसके कारण यह आत्मा यत्नसाध्य सिद्धिवाला है अर्थात् पुरुषार्थ से सिद्धि प्राप्त करनेवाला है और इस भगवान आत्मा में एक दैव नामक धर्म भी है, जिसके कारण यह आत्मा अयत्नसाध्य सिद्धिवाला है। ये दोनों धर्म भगवान आत्मा में एकसाथ रहते हैं; अत: वह एकसाथ ही यत्नसाध्य सिद्धिवाला और अयत्नसाध्य सिद्धिवाला है। ऐसा नहीं है कि कभी यत्नसाध्य सिद्धिवाला हो और कभी अयत्नसाध्य सिद्धिवाला। ऐसा भी नहीं है कि कोई आत्मा यत्नसाध्य सिद्धिवाला हो और कोई आत्मा अयत्नसाध्य सिद्धिवाला हो; क्योंकि ये दोनों धर्म एकसाथ ही प्रत्येक आत्मा में रहते हैं। अत: इन्हें एक ही आत्मा में एकसाथ ही घटित होना चाहिए । उक्त सम्पूर्ण कथन का तात्पर्य यह है कि जब मुक्तिरूपी कार्य सम्पन्न होता है, तब वह सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप आत्मसन्मुखता के पुरुषार्थपूर्वक ही होता है और उस समय कर्मों का अभाव भी नियम से होता ही है। इसप्रकार उक्त मुक्तिरूपी कार्य की सिद्धि में आत्मा के पुरुषार्थ नामक धर्म का भी योगदान है और दैव नामक धर्म का भी योगदान है। प्रत्येक व्यक्ति के मुक्तिरूपी कार्य की सिद्धि की वास्तविक स्थिति तो यही है। इसे ही पुरुषकारनय और दैवनय की भाषा में इसप्रकार व्यक्त करते हैं कि यह भगवान आत्मा पुरुषकारनय से यत्नसाध्य सिद्धिवाला है और दैवनय से अयत्नसाध्य सिद्धिवाला है। इसप्रकार नियतिनय-अनियतिनय,स्वभावनय-अस्वभावनय, कालनय-अकालनय एवं पुरुषकारनय - दैवनय-इन आठ नयों के माध्यम से यह स्पष्ट किया गया है कि मुक्तिरूपी
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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