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________________ ५४८ प्रवचनसार यहाँस्वभावनय और अस्वभावनय को स्वाभाविक नोकवाले काँटे और कृत्रिम नोकवाले बाण के उदाहरण से समझाया जा रहा है। ___जिसप्रकार काँटे की नोक किसी ने बनाई नहीं है, असंस्कारित है, अकृत्रिम है, काँटे का मूल स्वभाव है; उसीप्रकार भगवान आत्मा का मूल स्वभाव असंस्कारित है, अकृत्रिम है, किसी का बनाया हुआ नहीं है; उसमें किसी भी प्रकार का संस्कार संभव नहीं है। अत: वह भगवान आत्मा स्वभावनय से संस्कारों को निरर्थक करनेवाला कहा गया है। तथा जिसप्रकार बाण की नोक लुहार द्वारा बनाई गई है; अत: संस्कारित है, कृत्रिम है; उसीप्रकार भगवान आत्मा के पर्यायस्वभाव में संस्कार किया जा सकता हैं; अत: अस्वभावनय से भगवान आत्मा संस्कारों को सार्थक करनेवाला कहा गया है। __भगवान आत्मा में स्वभाव नामक एक ऐसा धर्म है, जिसके कारण भगवान आत्मा के द्रव्यस्वभाव को, मूलस्वभाव को अच्छे-बुरे संस्कारों द्वारा संस्कारित नहीं किया जा सकता। आत्मा के इस स्वभाव नामक धर्म को विषय बनानेवाले नय का नाम स्वभावनय है। __जिसप्रकार भगवान आत्मा में एक स्वभाव नामक धर्म है और उसके कारण द्रव्यस्वभाव को संस्कारित किया जाना संभव नहीं है; उसीप्रकार भगवान आत्मा में एक अस्वभाव नामक धर्म भी है, जिसके कारण आत्मा के पर्यायस्वभाव को संस्कारित किया जा सकता है। आत्मा के इस अस्वभाव नामक धर्म को विषय बनानेवाले नय का नाम अस्वभावनय है। जिस वस्तु का जो मूलस्वभाव होता है, उसमें संस्कारों द्वारा किसी भी प्रकार का परिवर्तन संभव नहीं है। करोड़ों उपाय करने पर भी जिसप्रकार अग्नि के उष्णस्वभाव में परिवर्तन किया जाना संभव नहीं है; उसीप्रकार भगवान आत्मा के चेतनस्वभाव में, ज्ञानानन्दस्वभाव में संस्कारों द्वारा किसी भी प्रकार का परिवर्तन संभव नहीं है। तात्पर्य यह है कि वह किसी भी स्थिति में अचेतन नहीं हो सकता। इसे ही और अधिक स्पष्ट करें तो यह भी कह सकते हैं कि करोड़ों वर्ष तप करने पर भी अभव्य भव्य नहीं हो जाता; इसीप्रकार अनन्तकाल तक अनन्तमिथ्यात्वादि का सेवन करते रहने पर भी कोई भव्य अभव्य नहीं हो जाता; क्योंकि स्वभावनय से आत्मा संस्कारों को निरर्थक करनेवाला है; तथापि मिथ्यादृष्टी, सम्यग्दृष्टी हो सकता है; सम्यग्दृष्टी, मिथ्यादृष्टी भी हो सकता है; क्योंकि अस्वभावनय से भगवान आत्मा के पर्यायस्वभाव को, अनियतस्वभाव को संस्कारित किया जाना संभव है।
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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