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________________ चरणानुयोगसूचकचूलिका : पंचरत्न अधिकार शुद्धस्यैव । यच्च समस्तभूतभवद्भाविव्यतिरेककरम्बितानन्तवस्त्वन्वयात्मकविश्वसामान्यविशेषप्रत्यक्षप्रतिभासात्मकं दर्शनं ज्ञानं च तत् शुद्धस्यैव । यच्च नि:प्रतिघविजृम्भितसहजज्ञानानन्दमुद्रितदिव्यस्वभावं निर्वाणं तत् शुद्धस्यैव । यश्च टोत्कीर्णपरमानन्दावस्थासुस्थितात्मस्वभावोपलम्भगम्भीरोभगवान् सिद्धः स शुद्ध एव । अलंवाग्विस्तरेण सर्वमनोरथस्थानस्य मोक्षतत्त्वसाधनतत्त्वस्य शुद्धस्य परस्परमङ्गाङ्गिभावपरिणतभाव्यभावकभावत्वात्प्रत्यस्तमितस्वपरविभागोभावनमस्कारोऽस्तु ।।२७४।।। अथ शिष्यजनं शास्त्रफलेन योजयन शास्त्रं समापयति - बुज्झदि सासणमेयं सागारणगारचरियया जुत्तो। जो सो पवयणसारं लहुणा कालेण पप्पोदि ।।२७५।। भावी व्यतिरेकों के साथ मिलित अनन्त वस्तुओं का अन्वयात्मक विश्व के सामान्य और विशेष के प्रत्यक्ष प्रतिभासस्वरूप दर्शन-ज्ञान भी शुद्ध के ही होते हैं। निर्विघ्न खिला हुआ सहज ज्ञानानन्द की मुद्रावाला दिव्य निर्वाण भी शुद्ध के ही होता है और टंकोत्कीर्ण परमानन्द अवस्थारूपसे सुस्थित आत्मस्वभाव की उपलब्धि से गंभीर सिद्धदशाकोशुद्ध (शुद्धोपयोगी) ही प्राप्त करते हैं। अधिक कहने से क्या लाभ है ? सर्व मनोरथों के स्थानभूत, मोक्षतत्त्व के साधनतत्त्वरूप शुद्ध को; जिसमें परस्पर अंग-अंगीरूप से परिणमित भावक-भाव्यता के कारण स्व-पर विभाग अस्त हो गया है - ऐसा भाव नमस्कार हो।" ____ आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा का निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि यहाँ यह कहा गया है कि इस मोक्ष के कारणभूत शुद्धोपयोग के माध्यम से सम्पूर्ण इष्ट मनोरथ सिद्ध होते हैं - ऐसामानकर, शेष मनोरथों को छोड़कर, इसमें ही भावना करना चाहिए। इस गाथा में निष्कर्ष के रूप में यह कह दिया गया है कि शुद्धोपयोगी सन्तों के ही सच्चा श्रामण्य (मुनिपना) है और वे ही सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से सम्पन्न हैं। अधिक क्या कहें - एक उनको ही मोक्ष की प्राप्ति होनेवाली है। इसलिए हम सिद्धदशा प्राप्त करने में संलग्न शुद्धोपयोगी सन्तों और सिद्धों को बारम्बार नमस्कार करते हैं।।२७४ ।। __ पंचरत्नसंबंधी विगत चार गाथाओं में संसारतत्त्व, मोक्षतत्त्व और मोक्षतत्त्व के साधनतत्त्व का स्वरूप और मोक्षतत्त्व और उसके साधनतत्त्व की महिमा बताकर अब इस अन्तिम गाथा में; न केवल पंचरत्न अधिकार की अन्तिम गाथा में, अपितु प्रवचनसार परमागम की इस अन्तिम गाथा में शिष्यजनों को शास्त्रफल से जोड़ते हुए इस शास्त्र का समापन करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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