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________________ ५०९ चरणानुयोगसूचकचूलिका : पंचरत्न अधिकार अथ मोक्षतत्त्वसाधनतत्त्वमुद्घाटयति - सम्मं विदिदपदत्था चत्ता उवहिं बहिरत्थमज्झत्थं । विसयेसु णावसत्ता जे ते सुद्धा त्ति णिहिट्ठा ।।२७३।। सम्यग्विदितपदार्थास्त्यक्त्वोपधिं बहिस्थमध्यस्थम् । विषयेषु नावसक्ता ये ते शुद्धा इति निर्दिष्टाः ।।२७३।। अनेकान्तकलितसकलज्ञातृज्ञेयतत्त्वयथावस्थितस्वरूपपाण्डित्यशौण्डाः सन्तः समस्तबहिरङ्गान्तरङ्गसङ्गतिपरित्यागविविक्तान्तश्चकचकायमानानन्तशक्तिचैतन्यभास्वरात्मतत्त्वस्वरूपाः स्वरूपगुप्तसुषुप्तकल्पान्तस्तत्त्ववृत्तितया विषयेषुमनागप्यासक्तिमनासादयन्त: ___ यद्यपि आचार्य जयसेन तात्यर्यवृत्ति टीका में इस गाथा के भाव को प्रस्तुत करते हुए तत्त्वप्रदीपिका का ही अनुकरण करते हैं; तथापि अन्त में निष्कर्ष के रूप में कहते हैं कि मोक्षतत्त्वरूप परिणत पुरुष ही अभेदनय सेमोक्षस्वरूप जानना चाहिए। ___ विगत गाथा से एकदम विपरीत इस गाथा में यह कहा गया है कि आत्मज्ञान अर्थात् सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान सहित निर्दोष चारित्र धारण करनेवाले भावलिंगी श्रमण ही मोक्षतत्त्व हैं और वे लीलामात्र में अष्टकर्मों का नाशकर अल्पकाल में ही मोक्ष प्राप्त कर लेंगे। इन उक्त दोनों गाथाओं में मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी श्रमणों को संसारतत्त्व और सम्यग्दृष्टि भावलिंगी श्रमणों को मोक्षतत्त्व कहा गया है।।२७२ ।। विगत गाथाओं मे संसारतत्त्व व मोक्षतत्त्व का निरूपण करने के उपरान्त अब इस गाथा में मोक्षतत्त्व के साधनतत्त्व का उद्घाटन करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) यथार्थ जाने अर्थ को दो विध परिग्रह छोड़कर। ना विषय में आसक्त वे ही श्रमण शुद्ध कहे गये||२७३|| पदार्थों को भली प्रकार जानते हुए जो श्रमण बहिरंग और अंतरंग परिग्रह को छोड़कर विषयों में आसक्त नहीं हैं; वे शुद्ध कहे गये हैं। आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "जो अनेकान्त के द्वारा ज्ञात सम्पूर्ण ज्ञानतत्त्व और ज्ञेयतत्त्व के यथावस्थित स्वरूप में प्रवीण, समस्त बहिरंग और अंतरंग संगति के परित्याग से अंतरंग में प्रकाशमान, अनंत शक्ति सम्पन्न चैतन्य से भास्वर आत्मतत्त्व के स्वरूप को भिन्न करनेवाले और इसीकारण आत्मतत्त्व की वृत्ति स्वरूपगुप्त व सुसुप्त समान प्रशान्त रहने से विषयों में किंचित् भी आसक्ति को प्राप्त
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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