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________________ ४९७ चरणानुयोगसूचकचूलिका : शुभोपयोगप्रज्ञापनाधिकार गाथाओं में तो यह कहते हैं कि यदि कोई मुनिराज सामने से आ रहे हों तो उनकी नग्न दिगम्बर अथ कीदृशः श्रमणाभासो भवतीत्याख्याति ण हवदि समणो त्ति मदो संजमतवसुत्तसंपजुत्तो वि । जदि सद्दहदि ण अत्थे आदपधाणे जिणक्खादे ।।२६४।। न भवति श्रमण इति मत: संयमतप: सूत्रसंप्रयुक्तोऽपि। यदि श्रद्धत्ते नार्थानात्मप्रधानान् जिनाख्यातान् ।।२६४।। आगमज्ञोऽपि.संयतोऽपि, तप:स्थोऽपिजिनोदितमनन्तार्थनिर्भरं विश्वं स्वेनात्मनाज्ञेयत्वेन निष्पीतत्वादात्मप्रधानमश्रद्दधानः श्रमणाभासोभवति ।।२६४।। दशा देखकर सर्वप्रथम खड़े होकर उनकी विनय और उन्हें यथायोग्य नमस्कारादि करना चाहिए । गुणों के अनुसार भेद करना तो उसके बाद की बात है। तात्पर्य यह है कि सामान्य रूप से तो सभी की विनय करना चाहिए। बाद में गुणाधिकता के अनुसार भेद करके विनय में यथायोग्य अन्तरकिया जाना चाहिए। इसी बात कोटीका में इसप्रकार लिखते हैं कि मुनिराजों की सामान्य विनय और गुणाधिकों की विशेष विनय का जिनागम में निषेध नहीं है। तात्पर्य यह है कि करने योग्य तो एकमात्र शुद्धोपयोग ही है; किन्तु शुभोपयोग के काल में यदि उक्त विनयादि क्रियायें होती हैं तो उनसे उनका मुनित्व खण्डित नहीं होता। पुण्यबंध की कारणरूप ऐसी क्रियायें मुनि भूमिका में अनुचित नहीं हैं; किन्तु उनसे बंध ही होगा, निर्जरा नहीं। यद्यपि श्रमणों के प्रति विनय-वैयावृत्ति आदि का निषेध नहीं है; तथापि श्रमणाभासों के प्रति तो निषेध ही है।।२६१-२६३|| ___ विगत गाथाओं में 'श्रमणों के साथ, श्रमणों और श्रावकों को कैसा व्यवहार करना चाहिए' - यह स्पष्ट करने के उपरान्त अन्त में यह कहा गया है कि श्रमणाभासों के प्रति तो उक्त विनय-व्यवहार सर्वथा निषिद्ध ही है; अत: अब इस गाथा में यह बताते हैं कि वे श्रमणाभास कैसे होते हैं ? गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) सत्र संयम और तप से यक्त हों पर जिनकथित। तत्त्वार्थ को ना श्रद्धहें तो श्रमण ना जिनवर कहें।।२६४|| जो श्रमण सूत्र, संयम और तप से संयुक्त होने पर भी यदि जिनवरकथित आत्मप्रधान पदार्थों का श्रद्धान नहीं करता; तो वह श्रमण श्रमण नहीं है - ऐसा आगम में कहा है। आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “आगम के ज्ञाता तथा संयम और तप में स्थित होने पर भीजोश्रमण; अपने आत्मा के द्वारा ज्ञेयरूप से पिये (जाने) जानेवाले अनन्त पदार्थों से भरे हुए आत्मप्रधान इस विश्व का
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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