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________________ ४९४ स्पष्ट करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है प्रवचनसार अशुभोपयोगरहिताः शुद्धोपयुक्ता: शुभोपयुक्ता वा । निस्तारयन्ति लोकं तेषु प्रशस्तं लभते भक्तः ।। २६० ।। यथोक्तलक्षणा एव श्रमणा मोहद्वेषाप्रशस्तरागोच्छेदादशुभोपयोगवियुक्ताः सन्तः, सकलकषायोदयविच्छेदात् कदाचित् शुद्धोपयुक्ताः प्रशस्तरागविपाकात्कदाचिच्छुभोपयुक्ताः, स्वयं मोक्षायतनत्वेन लोकं निस्तारयन्ति, तद्भक्तिभावप्रवृत्तप्रशस्तभावा भवन्ति परे च पुण्य भाज: ।। २६० ।। ( हरिगीत ) शुद्ध अथवा शुभ सहित अर अशुभ से जो रहित हैं। वे तार देते लोक उनकी भक्ति से पुणबंध हो ॥२६०|| अशुभोपयोग से रहित जो मुनिराज शुद्धोपयोग से या शुभोपयोग से सहित होते हैं, वे मुनिराज लोगों को तार देते हैं और उनके प्रति भक्तिवान जीव प्रशस्त पुण्य को प्राप्त करते हैं । इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं“मोह, द्वेष और अप्रशस्त राग के उच्छेद से अशुभोपयोग से रहित मुनिराज समस्त कषायोदय के विच्छेद से कभी शुद्धोपयोग युक्त और कभी प्रशस्त राग के विपाक से शुभोपयोग से युक्त होते हैं। वे मुनिराज स्वयं मोक्षायतन होने से लोक को तार देते हैं और उनके प्रति भक्तिभाव से जिन लोगों का प्रशस्तभाव रहता है, वे लोग पुण्य के भागी होते हैं । " आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा के भाव को सरल-सुबोध भाषा में अत्यन्त स्पष्टरूप से इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं. - “शुद्धोपयोग और शुभोपयोग परिणत पुरुष पात्र हैं । निर्विकल्प समाधि के बल से, शुभाशुभ उपयोग से रहित काल में, कभी वीतरागलक्षण शुद्धोपयोग से सहित तथा कभी मोह, द्वेष और अशुभराग से रहित काल में, सरागलक्षण शुभोपयोग सहित होते हुए भव्यजीवों को तारते हैं और उनके प्रति भक्ति रखने वाले श्रेष्ठ भक्त स्वर्ग प्राप्त करते हैं और परम्परा से मोक्ष प्राप्त करते हैं। " उक्त गाथा में यह कहा गया है कि सर्वप्रकार से सेवा के पात्र तो शुद्धोपयोगी सन्त ही हैं। साथ में जो शुभोपयोगी सन्त मिथ्यात्व और तीन कषाय चौकड़ी के अभाव से उत्पन्न शुद्धपरिणति से सम्पन्न हैं; पर अभी शास्त्रादि लिखने, पढ़ने-पढानेरूप शुभोपयोग में है; वे भी सर्वप्रकार से सेवा करने योग्य हैं; परन्तु विषय कषाय में संलग्न लोगों की सेवा कल्याणकारी नहीं है | २६० ॥ अब आगामी गाथाओं में आचार्यदेव विगत गाथाओं में प्ररूपित विषयवस्तु को विस्तार
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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