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________________ ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानाधिकार ४३ करना पड़ता है; आँखें और पदार्थ दोनों अपनी-अपनी जगह रहते हुए भी हम आँखों से पदार्थों को देख लेते हैं, जान लेते हैं और पदार्थ भी हमारे देखने-जानने में आ जाते हैं। अथैवं ज्ञानमर्थेषु वर्तत इति संभावयति । अथैवमर्था ज्ञाने वर्तन्त इति संभावयति - रयणमिह इन्दणीलं दुद्धज्झसियं जहा सभासाए। अभिभूय तं पि दुद्धं वट्टदि तह णाणमढेसु ।।३०।। जदि ते ण संति अट्ठाणाणे णाणं ण होदि सव्वगयं । सव्वगयं वा णाणं कहं ण णाणट्ठिया अट्ठा ।।३१।। इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अग्नि को जानने से आँखें जलती नहीं हैं। इसीप्रकार की स्थिति ज्ञान की भी है। ज्ञेय पदार्थों को जानने के लिए ज्ञान को न तो किन्हीं ज्ञेय पदार्थों के पास जाना पड़ता है और न वे ज्ञेय पदार्थ ही ज्ञान में प्रविष्ठ होते हैं; दोनों के अपने-अपने स्वभाव में स्थित रहने पर भी ज्ञान ज्ञेय पदार्थों को जान लेता है और ज्ञेय पदार्थ ज्ञान में प्रतिबिम्बित हो जाते हैं। इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि ज्ञेयों को जानने से ज्ञान में कुछ भी विकृति उत्पन्न नहीं होती तथा ज्ञेयों पर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता।।२८-२९।। विगत २८ व २९वीं गाथाओं में यह कहा गया है कि यद्यपि निश्चयनय से ज्ञान (आत्मा) अपने असंख्यात प्रदेशों में ही रहता है; तथापि वह व्यवहारनय से सर्वगत भी है। इसीप्रकार यह भी कहा गया है कि यद्यपि निश्चयनय से ज्ञेय ज्ञेयगत ही हैं; तथापि व्यवहारनय से वे ज्ञानगत भी हैं; आत्मगत भी हैं। अब इन ३० व ३१वीं गाथाओं में उसी बात को अर्थात् ज्ञान ज्ञेयों में और ज्ञेय ज्ञान में वर्तते हैं - इसी बात को सयुक्ति सिद्ध करते हैं। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) ज्यों दूध में है व्याप्त नीलम रत्न अपनी प्रभा से। त्यों ज्ञान भी है व्याप्त रे निश्शेष ज्ञेय पदार्थ में ||३०|| वे अर्थ ना हों ज्ञान में तो ज्ञान न हो सर्वगत। ज्ञान है यदि सर्वगत तो क्यों न हों वे ज्ञानगत ||३१|| जिसप्रकार इस जगत में दूध में पड़ा हुआइन्द्रनील रत्न अपनी प्रभा से उस दूध में व्याप्त
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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