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________________ ४६८ प्रवचनसार नहीं करता; तोवह पुरुष मोहकलंकरूपी कीले से बंधे कर्मोंसेन छूटता हुआ सिद्ध नहीं होता। अत आत्मज्ञानशून्यमागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्यमप्यकिंचित्करमेव ।।२३९।। इसलिए आत्मज्ञानशून्य आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्व का युगपत्पना भी अकिंचकर है, कार्यकारी नहीं है।" ____ इस गाथा में ऐसे अनेक बिन्दु है; जो स्पष्टीकरण की अपेक्षा रखते हैं। जैसे - सव्वागमधरो वि - सर्वागम का धारक अर्थात् सम्पूर्ण आगम को जाननेवाला भी सिद्धि को प्राप्त नहीं होता। यह कैसे हो सकता है; क्योंकि सर्वागम का धारी तो श्रुतकेवली होता है और वह तो आत्मज्ञानहीन हो ही नहीं सकता है? यह बात आचार्य अमृतचन्द्र के चित्त में भी उपस्थित हुई होगी, यही कारण है कि वे उक्त पद का अर्थ करते समय लिखते हैं कि सर्वागम का सार जाननेवाला भी....। यहाँ सर्व आगमधर का अर्थ द्वादशांग का पाठी न लेकर ११ अंग और ९ पूर्व का पाठी लेना होगा; क्योंकि मिथ्यादृष्टि को अधिक से अधिक ११ अंग और ९ पूर्वो का ज्ञान ही हो सकता है। इसीप्रकार इस गाथा में कथित मूर्छा का आशय देहादि में एकत्व, ममत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्वबुद्धिरूप मिथ्यात्व से ही है। सबकुछ मिलाकर निष्कर्ष यह है कि ग्यारह अंग और नौ पूर्व का पाठी एवं उक्त आगम में प्रतिपादित तत्त्वों की व्यवहार श्रद्धा से सम्पन्न तथा महाव्रतादि का धारी व्यक्ति भी यदि देहादि में एकत्व-ममत्व धारण करता हुआ त्रिकाली ध्रुव निज भगवान आत्मा की अनुभूतिपूर्वक उसमें अपनापन नहीं रखता तो वह मोक्षमार्गी नहीं है, मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता। अत: यह सहज ही सिद्ध है कि आत्मज्ञानशून्य व्यक्ति के श्रद्धान, ज्ञान और संयम निरर्थक ही है।।२३९ ।। इस गाथा के बाद आचार्य जयसेन कृत तात्पर्यवृत्ति टीका में एक गाथा ऐसी आती है; जो तत्त्वप्रदीपिका टीका में नहीं है। गाथा मूलत: इसप्रकार है - चागो य अणारंभो विसयविरागो खओ कसायाणं । सो संजमो त्ति भणिदो पव्वज्जाए विसेसेण ।।३५।। (हरिगीत) अनारंभी त्याग विषयविरक्त और कषाय क्षय| ही तपोधन संतों का सम्पूर्णतः संयम कहा ||३५|| प्रव्रज्या अर्थात् तपश्चरण अवस्था में त्याग, अनारंभ, विषयों से विरक्तताऔर कषायों के क्षय को विशेष रूप से संयम कहा गया है। इसकी टीका में आचार्य जयसेन त्याग, अनारंभ आदि सभी विशेषणों के भाव को स्पष्ट
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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